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व्याख्याप्रज्ञप्ति ए नाम संभालवा थीज श्रोता एमां प्रवृत्त हुवै अने एमने इष्टफल की सिद्धि हुवै। ति प्रकार करिकै इण ग्रंथ नैं विषै भगवान् अर्थ थी कहिवा योग्य अरथ - अभिधेय कह्या, ते सांभलवा वाला ने अनंतर अन परंपर ए बे फल हुवै । तिहां अनन्तर फल ते साक्षात् फल तेहनी परूपणा अन तेहनों जाणपणो ए तो अनंतर फल कह्यो । अनैं परंपर फल ते मोक्ष । ते मोक्ष नुं फल ए ग्रंथ नैं विषै भगवंत ना वचन है ते थकीज मोक्ष नां फल नीं सिद्धि । आप्त ते भगवान् साक्षात अथवा परंपरा करिकै मोक्ष नां अंग नहीं है तो तेह्नों प्रतिपादन करें ज नहीं । अनाप्तपणा नां प्रसंग थकी । आप्तपणा नां अभाव नां प्रसंग थकी।'
ते इम ए शास्त्र एक श्रुतस्कंध रूप (१), तेहनां एक सय अड़तीस अध्ययन (२), दस हजार उद्देशा ( ३ ), ३६ हजार प्रश्न परिमाण (४), २ लाख ८८ हजार प्रमाण पद राशि ( ५ ) - ए पांच विशेषण वालो भगवती शास्त्र तिणरै मंगलादिक च्यारे ही दिखाया ।
अथ प्रथम शतक - (अध्ययन), तेहना दश उद्देशा हुवै । उद्देशा एटले ते अध्ययन ना विभाग छँ उपधान विधि ( तप - विशेष) करिकै शिष्य नै आचार्य उद्देशियँ—'एतलुं अध्ययन नुं विभाग तूं भण', इम उद्देशिय तेहीज उद्देशगा । वलितेने प्रते सुखे धारवा अनैं संभारिवादिक नैं निमित्ते एमना आदि-आदि संग्रहणी गाथा कहै छै । राजगृह इत्यादि...
यद्यपि आगल कहिस्यै ते दश उद्देशा नै विषै अर्थ कह्या ते जाणं छतै ए गाथा नो अर्थ तो स्वयमेव जाणियै तो पिण बाल नै सुख जाणवा नै अर्थ ए कहियै छँ
रायगिहे कहितां छतां, नगर राजगृह प्रथम उद्देशक नों अरथ, वीर देखाड्यो चरणविषय उद्देश घर चलमाणे अर्थ तथा निर्णय कृते प्रश्नोत्तर
मांहि ।
ताहि ॥
इत्यादि ।
संत्रादि ॥
द्वितीय उद्देशक दुख विषय, जीव अहो भगवत । स्वयंकृत दुख वैदि इत्यादि वेदिये, इत्यादि प्रश्न उदंत ॥ कंख-पओस कांक्ष कक्ष ते मिया मोह उदयेह वांछा अन्य अन्य मततणी, जीव परिणामज एह् ॥
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१. यहां भगवान् ने व्याख्याप्रज्ञप्ति - अर्थ की व्याख्या का प्ररूपण अभिधेय के रूप में किया है। उसका अनन्तर फल है— अर्थ की प्रज्ञापना और बोध और उसका परंपर फल है-मोक्ष । वह मोक्ष रूप फल व्याख्या - प्रज्ञप्ति के आप्त-वचन होने के कारण ही है, क्योंकि आप्त पुरुष उस तत्त्व का प्रतिपादन नहीं करते जो साक्षात् या परम्परा से मोक्ष का अंग न हो। अन्यथा उनके अनाप्त होने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। यहां वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध है। इस प्रकार आप्त वचन और उसका फल मोक्ष -- इनका सम्बन्ध द्योतित करना ही इस शास्त्र का प्रयोजन है ।
प्रवृत्त्यादीष्टफलसिद्धेः तथाहि इह भगवतोऽर्थव्याख्या अभिधेयतया उक्ताः, तासां च प्रज्ञापना बोधो वाऽनन्तरफलं, परम्परफलं तु मोक्षः, स चास्याऽऽप्तवचनत्वादेव फलनया सिद्धो, न ह्याप्तः साक्षात् पारम्पर्येण वा यन्न मोक्षां तत्प्रतिपादतिमुत्सहते अनतत्वप्रसंगात् तथाऽयमेव सम्बन्धो यदुतास्येदं शास्त्रस्येदं प्रयोजनमिति ।
तदेवमस्य शास्त्रस्यैकथुतसातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्य उद्देशकदशसहस्री (१००००) प्रमाणस्य शिप्रश्नसह (२६०००) परिमाणस्य अष्टाशीसहस्राधि (२८८०००) प्रमाणपदराशे मंगलादीनि दर्शितानि ।
अथ प्रथमे शते ग्रन्थान्तरपरिभाषयाध्ययने दशोदेशका भवन्ति, उद्देश काय अध्ययनार्थदेशाभिधाउद्देशकाश्चयिनोऽध्ययनविभागाः, उद्दिश्यन्ते उपधानविधिना शिष्यस्याचार्येण यथा--- एतावन्तमध्ययनभागमधीष्वेस्वास्एवोका, तांश्च बधरणस्मरणादिनिमित्तमायाभिषेवाभिधानद्वारेण संग्रहीतुम ( वृति-प०५)
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गाथामाह-
१८०. रायगिहेत्ति
११.ति चलनविषयः प्रथमक: समा चलिए' इत्यानिर्णपार्थः । (90702) १८२. 'दुक्खे' त्ति दुःखविषयो द्वितीयः 'जीवो' भदन्त । स्वयंदुःखं वेदयतीत्यादिना पत्र ६) कांक्षा -- मिथ्यात्वमोहनीयोदय१८३. 'कंखपओसे' त्ति मुल्ययाम्यदर्शनहरू परिणामः ।
( वृ००६)
श० १, उ० १, डा० १ २१.
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