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द्रव्य निक्षेपो गुण-रहित, वंदन योग्य न ताम।
समवायंगे देख लो, द्रव्य भाव जिन नाम ।। १७५. भरत एरवत क्षेत्र नां, अनागत जिन राय।
चउवीसी नां नाम पिण, वंदे पाठ न ताय ।। बलि एरबत क्षेत्र नी, चउबीसी वर्तमान ।
ठांम ठांम वंदे कह्यो, ए गुण-सहित सुजान ।। १७७. वर्तमान चउबीसी ए, भरत क्षेत्र नी ताहि ।
ठांम ठाम वंदे कह्यो, जोवो लोगस्स मांहि ।। १७८.
ते माटै द्रव्य लिपि भणी, द्रव्य सुत्र नै सोय ।
नमस्कार किम कीजिय, हिये विमासी जोय ।। १७६. वत्तिकार द्रव्य लिपि भणी, थाप्यो छै नमस्कार।
सूत्र थकी मिलतो नथी, तेह अर्थ अवधार' ।। वाल-तथा पाना में जे लिख्या ते अक्षर-आकार वंदनीक माने तो अठारह लिपि मध्ये जेतला पुस्तक लिख्या ते सर्व संज्ञाक्षर वंदनीक थास्यै । कुराण, पुराण, वेद, जोतिष, वैदक, विकथा, वार्ता, मंत्र, यंत्र, तंत्र, कोक, सामुद्रक २६ पापश्रुत अक्षर-स्थापना माटै सर्व वंदनीक थास्यै । जेहन श्री वीत राग पापश्रुत कह्या छ। पिण द्रव्य लिपि वांद, तेहन ते वंदनीक थास्य, तेहनै वांदता किम नथी? पापश्रुत किम कहो छो? विचारी जोयजो । श्रीमान् ऋषभ जिन निज पुत्री ब्राह्मी नै दक्षिण हस्त करिके अष्टादश लिपि देखाड़ी ते मारी बाह्मी लिपि कही।
इहां शिष्य प्रेरणा करै छैननु अधिकृत शास्त्रहीज मंगलीक छ, ते मंगलपणा थकी नवा मंगल करिक स्यूं प्रयोजन? कीधां न जे करिवू तेहनै अनवस्थादि दोष प्राप्ति हुदै ते माट--जद गुरु कहै सत्य, किंतु शिष्य नी मति नै मंगल ग्रहण नै अर्थ नवा मंगल नों उपादान । वली शिष्ट आचार पालण नै अर्थे।
इहां वलि ए शास्त्र नां अभिधेय आदि सामान्य करिके तो 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' इण नामै करिके हीज कह्या। इण हेतु थकी तेनुं वली कहि अपेक्षित नहीं।
वा-लिपि:---पुस्तकादावक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दशिता ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते, आह च-- लेह लिवीविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं इत्यतो ब्राह्मीतिस्वरूपविशेषणं लिपेरिति ।
ननु अधिकृतशास्त्रस्यैव मंगलत्वात् किं मंगलेन ? अनवस्थादिदोषप्राप्तेः, सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमंगलपरिग्रहार्थ मंगलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय वेत्युक्तमेवेति।
अभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति नाम्नवोक्ता इति ते पुनर्नोच्यन्ते तत एव श्रोतृ
१. टीकाकार अभयदेवमूरि का अभिमत है कि इस युग के व्यक्ति श्रुत ज्ञान से ही लाभान्वित हो सकते हैं। श्रुतज्ञान के दो रूप हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । इनमें मूल तत्त्व भावश्रुत ही है, पर वह द्रव्यश्रुत हेतुक है, इसलिए उन्होंने संज्ञाक्षर-रूप द्रव्यश्रुत को नमस्कार किया है। २. लिपि का अर्थ है पुस्तक आदि में अक्षर-विन्यास । इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को सर्वप्रथम लिपि का बोध दिया, इसलिए वह ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हो गई। उस ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार हैं--ब्राह्मी, यवनानिका, दोषपूरिका, खरोष्टिका, खरसाहिया, प्रभाराजिका, उच्चतरिका, अक्षरपुष्टिका, भोगवती, वैनयिकी, निह्नविका, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि, आदर्श लिपि, माहेश्वरी, द्राविड़ी और पौलिन्दी।
(समवाओ १८१५) ३. शिष्य को मंगल की प्रतीति कराने के लिए और शिष्ट जनसम्मत व्यवहार का पालन करने के लिए यहां मंगल का उपादान है, यह पहले कहा जा चुका है।
२० भगवती-जोड़
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