SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६१-१६३. नैवम्, आचार्याणामुपदेशदानसामर्थ्यमर्हदुपदेशत एव, न हि स्वतन्त्रा आचार्यादय उपदेशतोऽर्थज्ञापकत्वं प्रतिपद्यन्ते। (वृ०-प०५) १६४. अतोऽर्हन्त एव परमार्थेन सर्वार्थज्ञापकाः । (वृ०-५०५) १६५, १६६. तथा अर्हत्परिषद्पा एवाचार्यादयोऽतस्तान् __ नमस्कृत्याहन्नमस्करणमयुक्तम्। (पृ०-५०५) १६७. 'ण य कोइवि परिसाए पणमित्ता पणवए रन्नोत्ति' (वृ०-प०५) गुरु भाषै-ए इम नहीं, अर्हत् नी पर ताहि । आचारज उपदेश प्रति, देवा सामर्थ्य नाहि ।। अहंत ना उपदेश थी, गणपति दै उपदेश । पिण स्व-बस थी नहि दिय, जे छद्मस्थ अशेष। १६३. अर्हत ना उपदेश थी, आचार्यादिक जेह । अर्थ प्रते जाण कहै, देश अर्थ प्रति तेह ।। १६४. केवलज्ञानी छै तिके, परमार्थे करि तेह । सर्व अर्थ जाणे सही, स्व आधीनपणेह॥ भावे तीर्थकर तणी, परपद रूप पिछाण । आचार्यादिक संत सहु, जिन मुख आगल जाण ।। तिण सं धुर आचार्य नै, नमण करी नै ताहि। पछै नमैं अरिहंत ने, अयूक्त ते जग मांहि ।। धर परषद् प्रति नमण करि, पाछै प्रणमै राय। लोक विषै पिण एहवी, रीति न दीस काय ।। इह कारण थी आदि में, अहंत नैज उदार। नमस्कार ते युवत छ, पंच पदां ने सार ।। वा०--इम प्रथम परमेष्ठि नै नमस्कार करी नै, हिवं लोक नै अत्यंत उपकारी श्रुत ज्ञान तेहनों जे देश भावे लिपिछै ते भावे लिपि नै नमस्कार, अथवा लिपि ना कर्ता ऋषभदेव, तेहन नमस्कार करिवू ते कहै छ। १६६. नमो बंभीए लिवीए, लिपि-कर्ता नाभेय । चरण-सहितधरजिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ।। पाथा ना कर्ता भणी, पाथौ कहिये ताहि । एवंभूतनय नै मते, अनुयोगदुवार रै मांहि ॥ १७१ अथवा लिपि ते भावलिपि, जे मुनि नै आधार । नमस्कार छै तेहन, एहवू दीस सार।। १७२. तीर्थ नाम जिम सूत्र नों, ते संघ ने आधार । तिण सं संघ नै तीर्थ का तिम भावे लिपि सार ।। वत्तिकार द्रव्य लिपि कही, ते लिपि छै गुण-शन्य । नमस्कार तेहने करी, ते तो बात जबून्य' ।। १६६. नमो बंभीए लिवीए। (श० ११२) १. टीकाकार ने यहां ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है, पर जयाचार्य ने अपनी स्वतंत्र तर्क-शक्ति का उपयोग कर 'ब्राह्मी लिपि' इस शब्द से लिपि कर्ता नाभेय-ऋषभदेव का ग्रहण कर उन्हीं को नमस्कार किया है। २. तीन शब्द नयशब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय के अनुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार को जानने वाला व्यक्ति प्रस्थक कहलाता है अथवा जिसके द्वारा प्रस्थकाधिकार को जानने वाले के उपयोग.....चैतन्य-व्यापार से प्रस्थक निष्पन्न होता है, वह प्रस्थक कहलाता है। [अनुयोगद्वार सूत्र ५५५] ३. निकृष्ट। श०१, उ०१, ढा०१ १६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy