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________________ छै-भते ! जो पांचमा अंग विवाहपण्यत्ति नों श्रमण भगवान् महावीरे ए अर्थ कह्य तो छठा अंग नों भंते ! स्यं अर्थ प्ररूपियो? ते इम इहां पिण सुधा स्वामी जंवू नाम थकीज उपोद्घात अवश्य का एम जणाय छै। बलि ए उपोद्घात-ग्रंथ मूल टीकाकार समस्त शास्त्र आश्रयी नै कह्यो पिण अम्है प्रथम उद्देशक आश्रयी नै कहियै छ। शतक-शतक प्रति उद्देशक-उद्देशक प्रति उपोद्धात नै इण शास्त्र में विपै अनेक प्रकार कहिवा णं भंते ! पंचमरस अंगस्स विवाहपन्नत्तीए समणेणं भगवया महावीरेणं अयमढे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! के अढे पन्नत्ते त्ति। तत एवमिहापि सुधर्मंव जम्बूनामानं प्रत्युपोद्घातमवश्यमभिहितबानित्यवसीयत इति । अयं चोपोद्घातग्रंथो मूलटीकाकृता समस्त शास्त्रमाश्रित्य व्याख्यातोऽप्यस्माभिः प्रथमोद्देशकमाश्रित्य व्याख्यास्यते। प्रतिशत प्रत्युद्देशकमुपोद्घातस्येह शास्त्रेऽनेकधाभिधानादिति । थकी। १६१. सोरठा नमस्कारादिक ताहि, रचना पूर्व कही तिका। मूल-वृत्ति रै माहि, न कहि किण कारण थको । १६१. अयं च प्राग व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वत्ति कृता न व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति । १६२. ब्राह्मी लिपि नमस्कार, मूल वृत्ति में ना किया। तास न्याय जे सार, बुद्धिवंत हिये विचारजो।। वा०-तेणं कालेणं ति । ते इति प्राकृत शैली ना वश थकी सप्तमी विभक्ति नो एकवचन हुई। अनैं संस्कृते सप्तमी नै एकवचने तस्मिन हई। णं शब्द छै तिको वाक्यालकार नै अर्थ जाण वो। काले कहिता अधिकृत अवसप्पिणी चतुर्थ अरा रूप विभाग लक्षण नै विष। तेण समएणं ति ते समय-जे समय भगवान् धर्मकथा कहिता हुता, एतलै काल नो हीज विशिष्ट विभाग, तेहन समय कहिये । अथवा तेणं कालेणं तेणं समाएणं ए च्यारूं स्थानके तीजी विभक्ति नो एकवचन हीज हुई । तेन कालेन पूर्वोक्त ते काल हेतुभूत करिक तेन समयेन पूर्वोक्त ते समय हेतुभूत करिके हीज रायगिहे नाम नगरे--कहितां राजगह नामे नगर, इहां एकार प्रथमा विभक्ति ने एकवचन, पिण सप्तमी नो एक वचन नहीं। जिम 'कयरे आगच्छइ दित्तरुवे' इत्यादिवत् । ते भणी राजगृहं नाम नगरं । होत्था कहिता हुतो। ननु हिवड़ा पिण ते नगर छ। एतलै सुधर्म स्वामी नै वाचनादान काले पिण ते नगर छ। इण कारण थकी ते नगर हुतो इम किम का ? एहनो उत्तर ----वर्णक ग्रंथोक्त राजगृह जेहवो विभूतियुक्त हुतो तेवो सुधर्म स्वामी जंबु प्रति वाचनादान काले नथी। अबसप्पिणी नां भाव थकी-काल नै ते सुभ भाव नी हानि नां भाव थकी। ते माटै राजगृह नाम नगर हुँतो एहवू का । वष्णओ कहितां इण स्थानके नगर नं वर्णक कहि । ग्रंथ नां विस्तार रा भय थकी मल पाठ मां वर्णक लिख्यो नथी। ते इम-रिद्धस्थिमियसमिद्धे... वा० ते इति-प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन् यत्र तन्नगरमासीत्, णकारोऽवाक्यालङ्कारार्थो 'काले' अधिकृतावसप्पिणीचतुर्थविभागलक्षण इति, 'ते णं' ति तस्मिन् यत्रासौ भगवान् धर्मकथामकरोत् 'समए णं' ति समये कालस्यैव विशिष्ट विभागे। अथवा तृतीयैवयं, ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव 'रायगिहे'त्ति एकारः प्रथमैकवचनप्रभवः ‘कयरे आगच्छइ दित्तरूवे' इत्यादाविव, ततश्च राजगृहं नाम नगरं होत्थ' त्ति अभवत् । नन्विदानीमपि तन्नगरमस्तीत्यतः कथमुक्तमभवदिति ? उच्यते, वर्णकग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत् न तु सुधर्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् । 'वन्नओ' ति इह स्थानके नगरवर्णको वाच्यः, ग्रन्थगौरवभयादिह तस्यालिखितत्वात्, स चैवम्--"रिद्धस्थिभियसमिद्धे । १. भगवती सूत्र की वर्तमान टीका अभयदेवसूरि की है। टीकाकार अभयदेवसूरि कह रहे है कि इस प्राग् व्याख्यात नमस्कार आदिक ग्रन्थ णमो अरहताणं... णमो बंभीए लिवीए णमो सुयस्स की मूल टीकाकार ने व्याख्या नहीं की है। इसका कारण अज्ञात है। संभव है, उक्त पाठ इस ग्रन्थ में मूलतः नहीं थे। प्रथम टीकाकार के समय तक भी वे नहीं थे। बाद में प्रक्षिप्त हुए है। यह प्रक्षेप कब हुआ और वे मूल टीकाकार कौन थे? इनका नाम अज्ञात है। २४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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