________________
रिद्ध ते पुर-भवनादि करिक बढ़यो-चढ़यो, थिमिय कहितां स्थिर, स्वचक्र परचक्रादि भयवजितपणा थकी। समिद्धे कहितां समृद्ध-धन-धान्यादि विभूतियुक्त-पणा थकी। पमुइयजणजाणवए। पमुइय कहितां प्रमोदवंत-हरषवंत प्रमोद-कारण वस्तु ना सद्भाव थकी। जण कहितां जन नगर ना बसवा वाला लोक अन जाणवए कहितां जनपद-देश के विष ऊपनां ते जानपदा देश नै विष रहै तिकै लोक, एतलै नगरवासी लोक पिण प्रमोदवंत हरषवंत लोक छ । अनै देश वासी लोक पिण ते राजगृह नै विष आया छतां प्रमोदवंत हरषवंत हुदै । इत्यादिक वर्णक उववाई सूत्र थकी जाणवू ।
ऋद्धं—पुरभवनादिभिवृद्धं स्तिमितं-स्थिरं स्वचक्रपरचक्रादिभयजितत्वात् समृद्धं–धनधान्यादिविभूतियुक्तत्वात्, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, पमुइयजणजाणवए' प्रमुदिता-हृष्टा: प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावाज्जना--नगरवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यत्र तत् प्रमुदितजनजानपदमित्यादिरौपपातिकात् सव्याख्यानोऽत्र दृश्यः ।
(वृ०-५०७)
*नमो प्रभ महावीरं, नमो शासन-तिलक सधीरं। तन मन करि तसु वचन आराध्यां, अविचल शिव-सुख सीरं । गुणिजन।
नमो प्रभू महावीरं । (ध्रुपदं ) १६३.
तिण काल तिण समयै हतो, नगर राजगह नाम ।
प्रथम उपांगे चम्पा-वर्णक, तिम कहि अभिरामं ।। १६४.
नगर राजगृह थकोज वाहर, उत्तर पूर्व विषे हो। दिशि ते गगन-मंडल नो भाग ज ते दिग्भाग सुलेहो।।
१६३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्थावण्णओ।
(श० ११४) १६४, १६५. तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे गुणसिलए नामं चेइए होत्था।
(श० ११५) 'दिसीभाए' ति दिशां भागो दिग्रुपो वा भागो गगनमण्डलस्य दिग्भागस्तत्र।
(वृ०प०७) १६६. सेणिए राया, चिल्लणा देवी। (श० १०६)
१६५.
अथवा जे दिग् रूप गगन-मंडल ना भाग विषेहो। कूण ईशाणे गुणसिल नामे, चैत्य हुँतो शुभ रहो।। तेह नगर नों श्रेणिक राजा, राज करै वर रीत । तास चेलणा राणी जाणी, आपस में अति प्रीतं ।। तिण काले तिण समय विर्ष जे, श्रमण तपस्वी साचा । वा सोभन मन सहितज वत्तै, समन प्रभूजी जाचा ।।
१६७.
१६८.
अथवा संकहिता जे मिलतो', अणति - भाख जेहो। वा सहभूत विष सम वत्र्स, समण कहीजै तेहो।।
१६७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे
श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, अथवा सह शोभनेन मनसा वर्तत इति समनाः। (वृ०-५०७) १६८. संगतं वा यथा भवत्येवमणति-भाषते, समो वा सर्व
भूतेषु सन् अणति-अनेकार्थत्वाद्धातूनां प्रवर्तत इति
समणः। १९६-२०१. भगवं महावीरे
भगवान्--ऐश्वर्यादियुक्तः पूज्य इत्यर्थः, 'महावीरे' त्ति वीरः 'सूर वीर विक्रान्तावि' ति वचनात् रिपुनिराकरणतो विक्रान्तः, स च चक्रवादिरपि स्यादतो विशेष्यते महांश्चासौ दुर्जयान्तररिपुतिरस्करणाद्वीरश्चेतिमहावीरः। (वृ०-५०७)
१९३.
ऐश्वर्यादियुक्त पूज्य प्रभु, तिण कारण भगवानं । दुर्जय अंतर्-रिपु हावा थो, महावीर अभिधानं ।।
२००.
सोरठा बीर धातु इम लेह, पराक्रम अर्थे हुई। अरि हणवा थी तेह, चक्रवादिक पिण हुवे ।।
*लय-बीस बिहरमाण १. संगत। २. यहां टीकाकार ने 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूप बनाकर उसकी व्याख्या की है। जयाचार्य ने भी उन्हीं तीनों रूपों-श्रमण, समन और समण को अपनी व्याख्या का आधार बनाया है।
श०१, उ०१, ढा०१ २५
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org