SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिण में । लेस्यावंत थको तिहां थी मरी नै नारकी मां ऊपज ते मारी। तथा कृष्ण लेश्यावंत थकोज उद्वर्त्तई, नारकी नैं भव पर्यत एक लेस्या हुवै अनैं मरीनै जिहां जाइं तिहां पिण अंतर्मुहर्त लगते लेस्या हुवै ते माट। पर्याप्ता नों अंतर्मुहूर्त लहुडो अनै लेस्या नों अंतर्मुहुर्त मोटो जाणिव, पिण पर्याप्तावस्थाइं परभव नी ते लेस्या संभवै । अंतर्मुहर्त नां असंख्याता भेद छै, इत्यर्थः। दूहा एवं नारक - सुत्रवत्, असुरादिक नै जाम । जेहनै जे लेस्या हुवै, तसं ते भणवी ताम ।। जावत् हे प्रभु ! जीवडो, जेह जोतिषी माय । उपजावा नै जोग्य तसं, लेश्य प्रश्न पूछाय ।। जे लेश्या नां द्रव्य ग्रहि, भाव परिणाम वसेण । जोतिषि नै विष ऊपजै, तेज विर्ष सुश्रेण ।। हे प्रभु ! वैमानिक में, जीव ऊपजवा जोग्य । ते किण लेस्से ऊपजै ? हिव जिन कहै प्रयोग्य ।। जे लेश्या नां द्रव्य ग्रहि, भावे करि मर ताहि । वैमानिक में ऊपजै, भली लेश त्रिहुं मांहि ।। कोइ कहै एवं का, हवै अर्थ नी सिद्धि । जोतिष वैमानिक पृथक क्यू करी सूत्र नी वृद्धि ? चरम सूत्र देखाडिवा, वैमानिक कहिवाय । सूत्र जोतिषी न वलि, ए कह्य किण न्याय ? जोतिषि नै वैमानीक नै, लेश्या हुवै प्रशस्त । ते देखाडण नै निमित्त, सूत्र विचित्रता स्वस्थ ।। सुर परिणाम अधिकार थी, द्रव्य देव अणगार । प्रश्न तास पूछ हिवै, श्री गोयम गणधार ।। १५. *हे प्रभुजी ! अणगार, भावित-आतम धणो, प्रभजी ! बारला पुद्गल जेह के, अणलीधै मुणो, प्रभुजी ! औदारिक थी अन्य, पुद्गल जे जाणिय, प्रभुजी ! बारला पुद्गल तेह, वृत्ति में माणिय, प्रभुजी ! समर्थ ते अणगार, वेभार नामैं गिरी, प्रभुजी ! एक बार बार-बार, उलंघवै फिरी ? प्रभजी ! थी जिन भाखै समर्थ, नहीं छै अर्थ ए, गायमजी! बारला पुद्गल लेइ, उलंघण समर्थ ए, गोयमजी ! *लय-थारां महिलां ऊपर ६. एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियब्या । जाव (श०३।१८३) 'एव' मिति नारकसुत्राभिलापेनेत्यर्थः 'जस्स' त्ति असुरकुमारादेर्या लेश्या कृष्णादिका सा लेश्या तस्यासुरकुमारादेर्भणितव्येति । (वृ०-प०१८८) ७. जीये णं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उवज्जित्तए, से णं भंते किलेस्सेसु उव वज्जइ? ८. गोयमा ! जल्लेसाई दब्बाई परियाइत्ता काल करेइ तल्लेस्सेसु उबवज्ज इ, तं जहा--तेउलेस्सेसु । (श० ३।१८४) ६. जीवे णं भंते ! जे भविए वेमाणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! किलेस्सेसु उववज्जइ? १०. गोयमा ! जल्लेस्साई दवाइं परियाइत्ता काल करेइ तल्लेस्सेसु उववज्ज इ, तं जहा---तेउलेस्सेसु वा, पम्ह लेस्सेसु बा, सुक्कलेसे वा। (श०३।१८५) ११. नन्वेतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थ भेदेनोक्तं । (वृ०-५० १८८) १२. एवं तहि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यान्न तु ज्योतिष्कसूत्रमिति। (वृ०-५० १८८) १३. ज्योतिष्कवैमानिकाः प्रशस्तलेश्या एव भवन्तीत्यस्य दर्शनार्थ तेषां भेदेनाभिधानं । (व०-५० १८८, १८६) १४. देवपरिणामाधिकारादनगाररूपद्रव्यदेवपरिणामसूत्राणि। __ (वृ०-प० १८६) १५. अणगारे ण भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरि याइत्ता 'बाहिरए' त्ति औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान् वैक्रियानित्यर्थः। (वृ०-प० १८६) १६. पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा ? पल्लंघेत्तए वा ? गोयमा ! नो इणठे समझे। (श० ३।१८६) अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभ वेभार पव्वयं उल्लंघत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा? हंता पभू। (श० ३१८७) ३८२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy