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इत्यादिक बह सूत्र में, ए पांचूं पद जाम । जिन मुनि ने स्थानक कह्या, श्रावक नै नहि ताम ।। प्रतिमा तथा कुटुंब में, बडो पुरुप कहिवाय। ते स्थानक ए पंच पद, लौकिक खाते आय ।। माहण नाम मुनी तणो, हिंसा छोडी आप। अन्य भणी कहै मत हणो, आगम साख मिलाप ।। तिण सं श्रमण माहण तणी, पर्युपासना सेव । ए सेवा जिन मुनि तणी, पिण श्रावक नों नहि भेव ।। तथारूप थमण माहण भणी, दे सचित्त असूझतुं आहार। अल्प आउ पंचम शतक, छठा उद्देश मझार ।। जो माहण कहै श्रावक भणी, दे सचित्त असझतुं आहार। तसं लेखै अल्प आउखो, बंध निगोद अपार ।। जो सुर अल्पायु कहै, तो सेवै हिंसा झूठ। तसुं पिण अल्पायू कह्यो, तसुं श्रद्धा गइ ऊठ।। मुनि ना चवदै नाम में, माहण मुनि नों नाम । श्रुत-खंध दूजै सुयगडांग, प्रथम उद्देशै ताम ।। सर्व पाप सू निवो, माहण कहिये तास । सयगडांग सोलम झयण, माहण संत विमास ।। श्रमण माहण नै आपणी, ऋद्धि दिखावा जेह । ठाणांग तीजै कह्यो, सुर तारारूप करेह ।। श्रमण माहण श्रुत परम तसुं, त्रिण चक्षु कहिवाय। तृतिय ठाण उद्देश तुर्य, पूरवधर मुनिराय॥ परम अवधिवत नै कह्या, श्रमण माहण ठाणंग। तृतिय ठाण उद्देश तुर्य, माहण संत सुचंग।। श्रमण माहण पे इक वचन, धारयां थी सुर होय । ते धर्माचारज थकी ऊरण किण विध जोय? दुर्भिक्ष रोग अरण्य दुख, मेट्यां ऊरण नांहि । ऊरण धर्म पमाय फिर, ठाणांग तीजा मांहि ।। कला-शिल्प-धर्म - आयरिया, रायप्रश्रेणी मांहि । तिण सं धर्माचार्य नैं, इहां माहण कह्या ताहि ॥ ज्ञाति संग बंधव तज्या, आश्रव पंच तजेण । त्रिण जोगे ब्रह्म माहण ते, पणवीसम उत्तरज्झेण ।। ज्ञाति पेज्ज बंध ना मिट्यो, पडिमा ग्यारमी मांहि । दशाश्रुतखंध छठे का, तिण सू श्रावक माहण नांहि ।। गौतम उदक प्रतै कह्यो, अहो उदक आउखावंत ! जे श्रमण माहण त्रसभूत इम, कहि पचखाण करंत ।।
२७८ भगवती-जोड़
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