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________________ mmmmm m 10 निश्चै अम्ह नै नहि रुचे, ते समणा वा निग्रंथ । अशुद्ध भाषा कहियै तसं, पर अनुताप करंत ।। सुयगडांग तेवीस में, माहण शब्द नै ठाम । निग्रंथ शब्द कह्यो अछ, तिण तूं माहण निग्रंथ नु नाम ।। सिलोग नाम श्लाघनीक ते, समण माहण कहिवाय । सर्व अतिथि तणो कह्यो अनुयोगद्वार रे मांय ।। ते माटै अन्य मत तणा, श्रमणादिक कहत। माहण ब्राह्मण नैं का, जग में गुरु वाजत ।। हे श्रावक ! हे धर्मप्रिय ! हे उपासक ! धामिक ! आचारग दूजे कह्यो, पिण माहण न कथिक ।। तिण कारण श्रावक भणी, माहण कहिजै नाय । माहण मुनिवर तेहनी, सेवा फल सुखदाय ।। श्रमण माहण नै दुख दियै, कोप्यो मूकै तेज। तथा तेज सुर मूकतो, तथा उभय मुकेज ।। ठाणांग दशमै ठाण ए, समण माहण मुनि एक। बीजो सूर ए बिहुं कह्या, पिण श्रावक न कह्यो पेख ।। विशेषण समुच्चय अर्थ ए, वा शब्द का विचार। श्रमण विशेष्य पद अछ, माहण विशेषण सार ।। ४२. श्रमण माहण वीतराग रै, ऊपर मूकै तेय । मुकण वाला में धसै, दशमै ठाण कहेय ।। ४३. इत्यादिक बहु स्थान के, श्रमण माहण मुनि नाम । वा रव समुच्चय अर्थ है, जोय विचारो ताम ।। ४४. श्रमण माहण नी सेव नु, सिद्ध गमन फल अंत । ते सेवा मुनिनीज है, जोवो सूत्र सिद्धंत' ।। वा०—पूर्वे समण माहण ना च्यार नाम अन तेहनी पर्युपासना अनै साधु नों समण माहण नाम संक्षेपे करि का, हिवै तेहिज सूत्रार्थे करि कहै छ ज्ञाता अध्येन १६ में कह्यो मेघकुमार भगवंत नै देखी पंच अभिगमन साचव al ० AK १. समणं वा माहणं वा' ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, मुनि के वाचक हैं किन्तु टीका कार ने इसका एक अर्थ यह भी किया है--समण-साधू, माहण-श्रावक । कूछ सम्प्रदायों ने इस अर्थ को मान्यता दे दी। जयाचार्य ने इस अभिमत से अपनी असहमति व्यक्त करने के लिए बहुत गंभीर समीक्षा की है। भगवती के प्रथम शतक ढाल २२ गाथा २८-११६ तक ८६ पद्यों में 'समणं वा माहणं वा' पर समीक्षा लिखने पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उन्होंने श०२।१११ पर लम्बी समीक्षा करते हुए पहले ४२ पद्यों में (ढाल ४४ गाथा ३-४५) और उसके बाद एक विस्तृत वातिका में आगम के पचीसों प्रमाण देकर इस तथ्य को सिद्ध किया है कि माहण नाम श्रावक का नहीं, साधु का है। इसे पढ़ने से जयाचार्य के आगम-सम्बन्धी अगाध और तलस्पर्शी अध्ययन तथा आगमों के प्रति प्रगाढ़ आस्था का परिचय प्राप्त होता Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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