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________________ ५५. ए ऊपजवा नों विरह छ, सर्व इमहिज निकलवा तणो, उत्कृष्ट देव नै सोयो। जघन्य सुजोयो ।। ५६. जघन्य थकी एक समय नों, है उत्कृष्ट छ मासो। विरह सिद्ध गति नों कह्यो, पिण निकलवा नुं न तासो।। ५५. उववायविरहकालो इय एसो वण्णिओ उ देवेसु । उव्वट्टणावि एवं सव्वेसु होइ विण्णेया । _ (वृ०-५० १०८) ५६. जहण्णेण एगसमओ उक्कोसेणं तु होति छम्मासा। विरहो सिद्धि गईए उब्वट्टणवज्जिया नियमा। (वृ०-प० १०८) ५८. सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति जाव विहरइ। (श० ११४४८) ५७. पन्नवण पद छटा विषै, आख्यो छै अधिकारो। ते अनुसारे आखियो, वारू ए विस्तारो॥ ५८. सेवं भंते ! इम कहि, जाव गोतम विचरतो। प्रथम शतक न परवडो, दशम उदेश सोहंतो।। ५६. ए प्रथम शतक अर्थ आखियो, संवत् उगणीस उगणीसो। मृगसिर सुदि पूनम दिने, लाडणू सहर जगीसो।। ६०. ढाल भली गुणतीसमी, भिवख भारीमाल ऋषरायो। 'जय-जश' संपति साहिबी, गण-वृद्धि स्वाम पसायो। प्रथमशते दसमोद्देशकार्थः ।।१।१०॥ गीतक-छंद इति पंचमाङ्ग-समुद्र गुरु-गम-भंग संग प्रसंग थी, वर प्रथम शतक पदार्थमय-आवर्तगर्त उमंग थी। उल्लंघियो युगपोत-वृत्ति सुचूणि रूप लही भली, मैं प्रगट उपचित-जाड्य लघुमति वृत्तिकार क ह्यो बली ।। गुरुदेव गुर कृपया अतुल भल अंग पंचम उदधि नो, वर प्रथम शतक पदार्थ रूपज भ्रमर लंध्यो शुभमनो। वर विविध विवरण समय-प्रवहण जोड़मय रच पाजही, अति सुगम निगम सुधार पर-उपकार हित सुख साज ही। १. इति गुरुगमभंगैः सागरस्याहमस्य, स्फुटमुपचितजाड्यः पञ्चमांगस्य सद्यः । प्रथमशतपदार्थावर्तगर्तव्यतीतो, विवरणवरपोतो प्राप्य सद्धीवराणाम् ।। (वृ०-५० १०८) श०१, उ०१०, ढा०२६ १८७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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