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________________ ४१. घणां प्राण भूत जीव सत्व नै, दुख पमा नाही। यावत् परितापन विष, ए वतै नहि काई ।। जोग-निरोध शुक्ल-ध्यान सं, सकल - कर्म - क्षय रूपो। अंत-क्रिया होवै तिहां, दृष्टत दोय अनूपो।। ४१. बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खावणयाए जाब अपरियावणयाए वट्टइ। ४२. योगनिरोधाभिधानशुक्लध्यानेन सकलकर्मध्वंसरूपाऽन्तक्रिया भवति तत्र दृष्टान्तद्यमाह (वृ०-प० १८४) ४३. से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं मंडिअपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ? ४४. हंता ! मसमसाविज्जइ। जिम कोइ नर सुका तृण तणो पूलो प्रक्षेपै अग्नि मझारो। हे मंडियपुत्र! अग्नि में न्हाखै छतै,शीघ्र दहन हुवै तिणवारो।। ४४. इम पूछ्यै थकै मडिपुत्र कहै, हां प्रभु ! शीघ्र बलंतो। वलै दूजो दृष्टंत देवै करी, प्रश्न करै भगवंतो।। ४५. कोइ अय-तप्त कडाहलै विष, जल-बिंदू प्रक्षेपै सोयो। हे मंडियपुत्र ! ते प्रक्षेपियां, शीघ्न विध्वंसज होयो ।। ___ मंडिपुत्र कहै हां प्रभु ! शीध्र विध्वंसज थायो। हिवै उपनय थी देखाडिय, सामर्थ्य जोग कहायो ।। ४५. से जहानामए केइ पुरिसे तत्तसि अयकवल्लंसि उदयबिदूं पक्खिवेज्जा, से नूणं मंडिअपुत्ता ! से उदयबिंदू तत्तंसि अयकवल्लसि पविखत्ते समाणे खिप्पामेव विद्धंस मागच्छद? ४६. हंता विद्धसमागच्छइ। इह च दृष्टान्तद्वयस्याप्युपनयार्थः सामर्थ्यगम्यः । (वृ०-प०१८४) ४७. यथा-एबमेजनादिरहितस्य शुक्लध्यानचतुर्थभेदानलेन कर्मदाह्यदहनं स्यादिति। (वृ०-५० १८४) ४८. अथ निष्क्रियस्यैवान्तक्रिया भवतीति नौदृष्टांतेनाह (वृ०-५० १८४) ४६. से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे ५०. ५०. बोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठति । ४७. इम कंपन कर रहित नैं, शुक्ल ध्यान तणों चोथो पायो। तेह रूप अग्ने करो, पुलो कर्म रूप जल जायो।। ४८. हिवै क्रिया-रहित नै इज हुवै, अंत - क्रिया सुखदायो। नावा मैं दृष्टते करी, भाखै छै जिण रायो।। ४६. यथा दृष्टांते द्रह जिको, पूर्ण जलभृत हुँतो। पूर्ण-प्रमाण ऊणो नथी, तल उलसत बेल बधतो ।। वोसट्टमाणे चिहं दिशै, पसरयो जल - विस्तारो। जिम घडो भरयो तिम द्रह भरयो,इम द्रह तिष्ठ तिवारो।। अथ कोइ पुरुष ते द्रह विषै, इक मोटी नाव कहायो। सदा श्रवती लघु-महा-छिद्र ते, मेली द्रह रै मांह्यो। ५२. हे मंडिपुत्र ! नावा तिका, आश्रव द्वारे करीनै भराई। लिगार मात्र ऊणी नहीं, वेल वृद्धि तलो हुलसाई ।। ५३. ऊपर चिउं दिशि पसरती, रहै भरया घडा जिम ताह्यो। 'हंता चिट्ठति" इसो पाट, किणहि पडत मांह्यो ।। १. जयाचार्य ने आगमों का पद्यानुवाद करते समय मूल पाठ के साथ पाठान्तर और वत्ति का भी मुक्त-मन से उपयोग किया है। कुछ स्थलों पर उनका उपयोग मूल पाठ के प्रवाह में किया गया है और कहीं-कहीं उसकी सूचना भी दी गई है। भगवती-जोड की ६४वीं ढाल की ५३वीं गाथा में पाठान्तर का उल्लेख करते हए जयाचार्य ने लिखा है'हंता चिट्ठति' इसो पाठ किणहि पडत माह्यो। (शेष अग्रिम पृष्ठ पर) ५१. अहे णं केइ पुरिसे तसि हरयसि एगं महं नावं सतासवं सतच्छिदं ओगाहेज्जा, ५२. से नूणं मंडिअपुत्ता ! सा नाबा तेहि आसवदारेहि आपूरमाणी-आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्ट माणा ५३. वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति ? हंता चिट्ठति। ३६८ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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