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________________ ५४. हिवै कोइ पुरुप ते नाव नैं, सर्व थी समस्त प्रकारो। पाणी आवा नां द्वार नैं, ढांकी नै तिणवारो। जल उलींचवा नां भाजन करी, काढे उदक उलींची बारो। ते उदक वारै काढयां छतै, शीघ्र ऊंची आवै तिणवारो।। ५४. अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता आसव दाराई पिहेइ, पिहेत्ता ५५. नावा-उस्सिचणएणं उदयं उस्सिचेज्जा से नणं मंडिअपुत्ता ! सा नावा तसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उदाइ? ५६.हंता उदाइ। इम वीर प्रभु पुछ्यै थकै, वर मंडियपुत्र कहै बायो। हंता हां आवै, प्रभु ! तब भाखै जिनरायो ।। ५७. इण दृष्टांते हे मंडियपुत्र ! मुनि ! आत्म-संवृत अणगारो। ईा-समिति करि सहित छै, जाव गुप्त - ब्रह्मचारो।। उपयोग सहित चालतो थको, संवत संत वदीतो। उपयोग सहित ऊभो रहै, वेसै सूवै रूडी रीतो।। ५६. वस्त्र पात्र बलि कंबलो, पायपूछणो ते रजोहरणं । लेतां मेलता छता, उपयोग सहित आचरणं ।। जाव चवखुपम्हणिवायमवि, आंख टमकार इतरो कालो। सूक्ष्म इरियावही क्रिया कही, ते बेमात्राइं न्हालो ।। अंतर मुहूर्त आदि दे, देश ऊणो पूर्व कोड थाई। क्रिया काल नां विचित्रपणां थकी, विविध मात्रा बेमात्रा कहाई।। ५७. एवामेव मंडिअपुत्ता ! अत्तत्ता-संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स जाव गुत्तबंभयारिस्स, ५८. आउत्तं गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस्स तुयट्टमाणस्स, ५६. आउत्तं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणं गेहमाणस्स निक्खिवमाणस्स ६०. जाव चक्खुपम्हनिवायमवि बेमाया सुहुमा इरियावहिया किरिया कज्जइ६१. 'वेमाय' त्ति विविधमात्रा, अन्तर्मुहर्तादेर्देशोनपूर्वकोटी पर्यन्तस्य क्रियाकालस्य विचित्रत्वात् । (वृ०-प० १८४) ६०. सोरठा ६२. वृत्तौ वृद्ध आख्यात, स्तोक - मात्र बेमात्र ते। चक्षु - पम्ह - निपात, इतै काल पिण जे क्रिया ।। ६३. *किहां बेमाया पाठ नै स्थानके, 'संपेहाए" पाठ दीसंतो। चक्खुपम्हणिवाय स्व इच्छा करी,पर इच्छा किंचित न करतो।। ६२. वृद्धाः पुनरेवमाहुः--यावता चक्षुषो निमेषोन्मेषमात्रापि क्रिया क्रियते तावताऽपि कालेन विमात्रया स्तोकमात्रयाऽपि। (वृ०-प० १८४) ६३. क्वचिद् विमात्रेत्यस्य स्थाने 'सपेहाए' त्ति दृश्यते तत्र च 'स्वप्रेक्षया' स्वेच्छया चक्षु पक्ष्मनिपातो न तु परकृतः। (वृ०-प० १८४) अंगसुत्ताणि ३३१४८ में 'हंता चिट्ठति' ऐसा पाठ है। जयाचार्य ने जिस आदर्श के आधार पर जोड़ की रचना की, उससे अतिरिक्त किसी प्रति में उनको चिट्ठति पाठ मिला होगा अथवा कुछ आदर्शों में संक्षिप्त पाठ की दृष्टि से ऐसे स्थलों को अनुल्लिखित ही छोड़ दिया जाता है। जयाचार्य द्वारा प्रयुक्त आदर्श में यह पाठ न हो और उन्हें उपलब्ध किसी अन्य आदर्श में हो तो उसकी सूचना देने के लिए उन्होंने 'हता चिट्ठति' पाठ उद्धृत किया हो, किन्तु लिपिदोष के कारण चिट्ठति पर अनुस्वार लग गया हो, यह भी संभव लगता है। प्रस्तुत प्रकरण की दृष्टि से 'चिट्ठति' पाठ ही शुद्ध प्रतीत होता है। *लय-वाल्हा वारी रे अब लग १. भगवती-जोड़ की ६४वीं ढाल की ६३वीं गाथा में जयाचार्य ने 'बेमाया' पाठ के पाठान्तर का उल्लेख करते हुए 'संपेहाए' पाठ उद्धृत किया है। वृत्तिकार ने इस स्थान पर 'सपेहाए' पाठ लिखकर उसका संस्कृत रूपान्तर किया है-'स्वप्रेक्षया'। इस दृष्टि से 'सपेहाए' पाठ ही अधिक संगत प्रतीत होता है। जयाचार्य को उपलब्ध किसी आदर्श में 'संपेहाए' पाठ रहा होगा, यह उनके उक्त निर्देश से स्पष्ट होता है। श०३, उ०३, ढा०६४, ३६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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