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________________ ५८, ५६. अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ६०.तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरह ताणं भगवंताणं नाम-गोयस्सवि सवणयाए ६१, ६२. किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसण-पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए? ६३. एगस्सवि आरियस धम्मियस्स सुययणरस सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? ५८. यथाप्रतिरूप जोग्य जाण, साध नैं कल्पै ते पिछाण। अवग्रह ते आज्ञा सुविचार, ग्रही मांगी से ज्या नी उदार ।। ५६. संजम तप कर आत्म भावंता, विचरै जिनजी जयवंता। प्रभु कयंगला वन आया, चिउं तीर्थ मांहि सोभाया ।। ६०. ते माटै निश्चै महाफल सार, अहो देवानुप्रिया! विचार। तथारूप अरिहंत भगवंत, तसं नाम गोत्र सुण्या हुंत ॥ तो स्यूं बलि कहित ताय, प्रभु सम्मुख गमन सहाय । वंदण वच स्तुति - कहिवाय, नमस्कार पंचांग नमाय ।। प्रश्न पूछण नों फुन पेख, सेवा करवा - महाफल लेख । सन्मुख गमन आदि सुभ जोग, सर्व जयणां स्यू कार्य प्रयोग ।। इक पिण आर्य धर्ममय सोय, भल बच सुण्या महाफल होय । तो किसु कहिव बलो जे अदंभ, विस्तीर्ण अर्थ ग्रहण न लभ ।। *सुगुण जन संचरै रे, बीर वंदन नै हेत। जनम सफलो करै रे, कयंगला नै चैत ।। (ध्रुपदं) ६४. ते माटै जावां अम्है रे, देवानुप्रिय ! सार। श्रमण भगवंत महावीर नै, करां वंदना नै नमस्कार ।। ६५. सत्कार ते आदर करां, सन्मान कहियै सोय। योग्य भक्ति अंगीकरी, हिब प्रभु केहवा जोय ।। ६६. 'कल्याणकारित्वात्, स्वाम कल्याणीको, विघ्न - उपशम हेतुपणात्, प्रभुजी मंगलीको, मंगलीको जश जिनजी को, देवयं-त्रिण लोक अधिप नीको। म्है तो जासां जासां वंदन वीर, त्रिभुवन-तिलक टीको।। ६७. चैत्य-अत्यंत प्रशस्त मनो हेतु स्वामी, ए चिहुं पद नों तंत, अर्थ कीधो धामी, कीधो धामी प्रभु हितकामी, वृत्ति रायप्रश्रेणी थी पामी। म्है तो जासां जासां वंदन वीर, प्रभू अंतरजामी ।। •धर्म ना धोरी जी, गोयम जिन जोड़ी जी। होजी एतो कयंगला नै बाग, जिनेश्वर आया जी। सुगुण हुलसाया जी॥(ध्रपदं) ६८. प्रभुजी नी सेवा करां कांइ, एह अम्हारै मान। परभव मांहै हित भणी कांइ, पथ्य अन्न नी पर जान ।। ६४. तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर वंदामो नमसामो ६५. सक्कारेमो सम्माणेमो 'सत्कारयामः' आदरं कुर्मः ‘सन्मानयाम' उचितप्रतिपत्तिभिः, किम्भूतम् ? (वृ०प०११५) ६६. कल्लाणं मंगल देवयं कल्याणं-कल्याणकारित्वात् मंगल-दुरितोपशमकारित्वात् देवतां-देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात् । (राय० वृ०-५० ५२) ६७. चेइयं चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात्। (रायः वृ०-५० ५२) ६८. पज्जुवासामो। एवं णे पेच्चभवे इहभवे य हियाए 'प्रेत्यभवे' जन्मान्तरे, "हिताय' पथ्यान्नवत् । (वृ०-प० ११५) *लय-कोडी चाली सासरै रे * लय-धिन-धिन भिक्खू स्वाम दीपाई दान दया 'लय-पायल वाली पदमणी श०२, उ० १, ढा० ३१ १६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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