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४५.
गीतक-चंद
४६. जन-बोल जे अप्रगट अक्षर, सांभले ध्वनि रव छतो । जन-कलकले होज ध्वनि पिण, वच विभाग लहोजतो ॥
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सोरठा
जन बोले इ आद, अंत सावत्थी मध्य थइ । निकल जन अहलाद, वृत्ति विषे सूत्रार्थ इम ॥
४७. जनउमि' एहनों अर्थ, जन कल्लोल ने आकार हो। समुदाय जन नो एवो ए प्रथम अर्थ विचार हो । ४८. अथवा तिहां बहु लोक नों, समुदाय जन ऊपरोपरि मिले बहु, ए द्वितीय ४६. जण उक्क लिया अति ही लघु समुदाय
संकीरण घणुं । अर्थ सुहामणुं || हीज कहीजिये ।
बहु एहवा स्थानक अछे, तिहां लोक रव सलहीजिये ॥ ५०. जन अपर अपरज स्थान थी, एकत्र आय मिले जिहां | जे इसा स्थानक तेहनें, जन- तन्निपात का इहां ॥
५१. प्रभु कबंगला वन आविया, तसुं कारता सब कर रहा। हि हरव अधिक हुलास घन मन सावत्यी जन महगा ।
५४.
यतनी
५३.
वचन
५२. बहुजन मांहोम इम आयें, आसामान्य थी दाख भासइ कहितां जे भातिके विशेष की अभिला ।। पूर्वे अर्थ कह्या जे दोय, आइवखइ भासइ सोय । तेहिज वे पद करहि कहिये नवे पवे सहिये ॥ तथा आइक्खइ सामान्य थो आखै, भासइ ते विशेष थी भाखे । पनवेद पर्याय, कहै प्रगट धर्म फल ताय ॥ ५५. परूये कहितां पपेक हेतु कारण करि जेह सुनवा वाला रैहिये अणावे, दृष्टांत देह इस मिश्] देवानुप्रिया ! जाण, श्रमण भगवंत वीर धर्म-आदि-कर्ता गुण-धामी, जाव मुक्ति जावा नां क्रम पूर्वानुपूर्व नगरी कबंगला
दर्ता |
५६.
५७.
मान 1
कामी ॥ विचरंता । मेह, चेत्य उपलास विषे ॥
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चालता, गामानुसा
१. टीकाकार ने जणुम्मि जन ऊर्मि शब्द के दो अर्थ किए हैं-जन- सम्बाध और कल्लोलाकार जन-समुदाय आनुपूर्वी के क्रम से पहले सम्बाध शब्द का ग्रहण होना चाहिए था, पर जयाचार्य ने अपनी जोड में 'कल्लोलाकार जन-समुदाय' इस अर्थ को प्राथमिकता दी है और दूसरे अर्थ में 'जन सम्बाध' को व्याख्यात किया है।
१६८ भगवती जोड़
४५. जगवोले इ वा
४६. जण कलकले इ वा
बोल: अव्यक्तवर्णी ध्वनिः, लभ्यमानवचनविभागः । ४७. जणुम्मी इवा
४७, ४५. ऊर्मिः संवाध: कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः । ( वृ० प० ११५)
४१. वा
कलकलः-- स एवोप ( वृ०१० ११५)
उत्कलिका - समुदाय एव लघुतरः । ( वृ० प० ११५)
५०. जणणिवाए इवा
जनसन्निपात: अपरापरस्थानेभ्यो जनानां मीलनं । (०-१० ११२)
५२, ५३. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ, एवं पण, एवं परूबेड़
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५६५७. एवं देवाचिया सम भगवं महावीरे आइ गरे जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविजकामे पुब्बाणुपुब्वि चरमाणे गामाणुगामं दुइज्जमाणे इहमागए इहपोहे लाए नए बहिया छत्त पलासए चेइए
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