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________________ सुणवा नो स्यू फल? तब भाखै स्वामो। सुण वा थी लहै, वर ज्ञान अमामो॥ प्रभु ज्ञान नों स्यू फल ? जिन कहै विज्ञानो। पामै ज्ञान थी, हेयोपादेय जानो। ४८. विज्ञान नो स्यू फल ? जिन कहै पचखाणो । विशिष्ट ज्ञान थी, अघ त्याग पिछाणो।। पचखाण नों स्य फल ? जिन कहै संजम्मो । त्याग किये छतै, हुवै संजम-धम्मो।। संयम नों स्यूं फल ? अनाश्रव संधो। जे संयम थकी, नवं कर्म अबंधो।। अनाथव नों स्य फल ? तप फल जिन भाखै । आवता रूधियां, तप – अभिलाखै ।। ४७. से णं भंते ! सवणे किंफले ? नाणफले। श्रवणाद्धि श्रुतज्ञानमवाप्यते। (वृ०-५० १४१) ४८. से ण भंते ! नाणे किफले? विण्णाणफले। श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारि विज्ञानमुत्पद्यत एव । (वृ०-प० १४१) ४६. से णं भंते विष्णाणे किंफले? पच्चक्खाणफले। विशिष्टज्ञानो हि पापं प्रत्याख्याति। (वृ०-५०१४१) ५० से णं भंते ! पच्चक्खाणे किंफले? संजमफले। कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो भवत्येव । (वृ०-५० १४१) ५१. से णं भंते ! संजमे किंफले ? अणण्हयफले । संयमवान् किल नवं कर्म नोपादत्ते। (वृ०-प० १४१) ५२. से णं भंते ! अणण्हए किफले? तवफले । अनाथवो हि लघुकर्मत्वात् तपस्यतीति। (वृत-प० १४१) ५३. से णं भंते ! तये किंफले? वोदाणफले । तपसा हि पुरातनं कर्म निर्जरयति। (व०प० १४१) ५४. से णं भंते वोदाणे किंफले? अकिरियाफले। कर्मनिर्जरातो हि योगनिरोधं कुरुते। (वृ०-५० १४१) ५५. सा णं भंते ! अकिरिया किंफला ? सिद्धिपज्जवसाण फला---पण्णत्ता गोयमा ! सकलफलपर्यन्तत्ति फलं यस्यां सा तथा । (वृ०-५० १४१) स्यूं फल है तप नो? जिन , कहै बोदाणं । तप कीधै छतै, निर्जरै पराणं ।। निर्जरा न स्यू फल? जिन कहै अकिरिया। योग - निरोध ते, वर फल अनुचरिया ।। अकिरिया नो स्यं फल ? सिद्धि लक्षण सारो। छेहडै एह ते, फल कह्यो उदारो।। सोरठा श्रवण ज्ञान विज्ञान, पचक्खाण संजम बली। अनाथव तप वोदाण, पुन: अकिरिया नै सिद्धि ।। ५६. सवणे णाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी॥ (२।१११ संगहणी-गाहा) ५७. तथारूपस्यैब श्रमणादे: पर्युपासना यथोक्तफला भवति, नातथारूपस्य। (वृ०-५० १४१) तथारूप मुनिराय, तसु सेवा ना फल कह्या। अतथारूप नी ताय, सेवा कीधां फल नहीं ।। तथारूप वर रोत, श्रमण माण नी सेव न । आख्यो फल संगीत, पर्यवसान सिद्धी-गमन ।। असत्यभापी जेह, तसू सेवा न फल नहीं। अन्ययथिक छै तेह, कहियै तास परूपणा ।। *प्रभु अन्यतीथिक, भाखै इम वाणी। राजगह बाहिरै, गिरि वेभार जाणी।। तिण पर्व हेठे, इक मोटो तामो। हरए द्रह अछ, 'अघ' तसु नामो।। ५६. असम्यग्भाषित्वादिति असम्यग्भाषितामेव केषाचित् दर्शयन्नाह _ (वृ०-प० १४१) ६०, ६१. अन्न उत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, भासंति, पण्णवेति, परूवेति—एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे, एत्थ णं महं एगे हरए अघे पण्णते---- *लय-भाव भावना २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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