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________________ मंतीहि भणियं-अंतपुरे कोइ खिप्पउ, तुह खेत्तज्जायया तुह ते पुत्ता। राया भणइ-अयसो मे भविस्सति । ते भणंति "जहा अयसो ण भवति तहा कज्जति । इमे समणा णिग्गंथा ण कस्सति कहंति, एते पक्खिप्पंतु । एवं कीरउ । ताहे जे तरुणसंजता ते गहिया एक्कम्मि पासाए छुढा । तरणोण-गाहा (२२४३) । सुठुल्लसितेगाहा (२२४४) एव ता अहिओगेण पडिसेंवतस्स जयणा भणिया। (नि० भा० गा० २२४२-२२४४) इहां राजा नै अभियोगे करी कुशील सेवै तेहनै जयणा कही पिण अणाचार न कह्यो। एहवा प्रत्यक्ष विरुद्ध वचन अणाचार्या ना कह्या ते किम मानिये ? जे कहै अम्हारै पंचांगी प्रमाण छै ते पंचांगी नै विर्ष चूणि मध्ये एहवा विरुद्ध वचन कह्या ते किम मानिये ? अनै पचांगी नै विष वृत्ति पिण, ते आचारांग नी वृत्ति में अप्रासूक-सचित्त आधाकर्मी आदिक दोष-दुष्ट कारणे लेणो कह्यो। वले वृत्ति चणि मध्ये कारणे सचित्त अंब फल खाणो अनैं रात्रि भोजन करवो कह्यो। इत्यादिक अनेक विरुद्ध बातां कही ते माटै ए पंचांगी ना बोल प्रमाण किम कीजै। विवेक लोचने विचारी जोइज्यो। तथा समवायांग में कह्यो---ऋषभ, भरत, बाहुबल, ब्राह्मी, सुंदरी ए ५ नो सरीखो आउखो ८८ लाख पूर्व नो छ। अनै आवश्यक-नियुक्ति मध्ये कह्यो--- ऋषभ ६६ पुत्र सहित एक भरत टाली नै अनै भरत ना आठ पुत्र ए १०८ उत्कृष्टी अवगाहनावंत एक समै सिद्धा, ते गाथा उसहो उसहसुया, भरहेण विवज्जिया नवनवइ । भरहस्स अट्ट सुया, सिद्धा एगंमि समयंमि ।। तथा ऋषिमंडल में पिण कह्यो। निनाणुं ऋषभ ना पुत्र आठ भरत ना पुत्र संयुक्त ऋषभदेव सहित---१०८ एक समय मैं सिद्ध कह्या, ते गाथा निन्नाण रिसहसूयं, अट्ठ भरहस्स पुत्त-संजुत्तं । एगममाएणं सिद्ध, रिसहजयं तं च पणमामि ।।१।। इहां ऋषभ अनै बाहुबल सरीखा आउखा ना धणी साथे सिद्धा कह्या ए विरुद्ध, तथा ठाणांग ठाणे ४ भरत चक्रवर्ती गजसुखमाल, सनतकुमार चक्रवर्ती, मरुदेवी माता नै अंतक्रिया कही अन आवश्यक-नियुक्ति में तथा ठाणांग नी टीका में तीज देवलोक कहै छ। ए सूत्र विरुद्ध । उववाइ, भगवती, पन्नवणा में कह्यो पांच सौ धनुष्य उपरंत न सीजै, उपरत युगलियो कहिये । अन आवश्यकनियुक्ति में कह्यो जे मरुदेवी माता नी अवगाहना सवा पांच सौ धनुष नी, ते सिद्धा कहै, ए विरुद्ध' । (ज०स०) ४५. श्रमण माहण साधू तणी, सेवा कीधां सोय । स्यूं फल ह?तब जिन कहै, सांभलजो अवलोय ।। *श्री जिनवर भणे (ध्रुपदं) जिन भाखै गोयम ! सेवा थी सोयो रे। श्रवण सिद्धांत नो, धुर फल ए जोयो रे ।। w: ४६. गोयमा ! सवणफला । सिद्धान्तश्रवणफला। (वृक्ष-प० १४१) *लय-भावै भावना पा०२, उ० ५, ढा०४४ २६३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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