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उपोद्घात
ढाल : १
दूहा ॐ पंच परमेष्ठि नमि, भिक्षु भारीमाल। नृपति-इंदु प्रणमी रचूं', 'भगवइ-जोड'विशाल ।। इक सय अड़ती शतक सहु, बड़ा शतक इकताल । उगणीसौ पणवीस वर, निमल उदेशा न्हाल ।। एकतीसमा शतक ना, अष्टवीस उद्देश । मतांतरे गुणतीस कहै, जाण बहुश्रुत रेस' ।।
*जय-कंजर गज जिम जयवंतो, समय भगवती सखर सोहंतो। (ध्रुपदं) ४. पंचम अंग भगवती पवर, द्वितिय नाम आख्यो तसु अवरं।
सरस 'विवाहपण्ण त्ति' सारं, जय-कंजर गज जिम जयकारं ।। ५. ललित मनोहर जे पद केरी, पद्धति रचना पंक्ति सुहेरी।
पंडित-जन मन-रंजन प्यारो, प्राज्ञ रिझावणहार प्रचारो।। ६. अव्यय फून उपसर्ग निपातं, ए विहं नो ज स्वरूप सुजातं ।
प्रादिक उपसर्ग चादि निपातं, प्राऽऽदिक चाऽऽदिक अव्यय ख्यातं ।।
४. 'विवाहपन्नत्ति' तिसज्ञितस्य पञ्चमाङ्गस्य समुन्नत
जयकुञ्जरस्येव (व्याख्याप्रज्ञप्ति वृ०-प० १) ५. ललितपदपद्धतिप्रबुद्धजनमनोरञ्जकस्य (वृ०-१० १)
६. उपसर्गनिपाताव्ययस्वरूपस्य
(वृ०-प०१)
१. भगवती-जोड़ के रचना-काल के प्रारंभ की सूचना देने वाला एक सोरठा उपलब्ध
उगणीसे उगणीस, बिद नवमी आसू गुरू ।
भगवइ-जोड जगीस, जय गणपति कीधी सुरू॥ २. भगवती के एक सौ अड़तीस शतक हैं। इनमें इकतीसवें शतक के अट्ठाईस उद्देशक हैं । जयाचार्य ने किसी अन्य अभिमत से इस शतक के उनतीस उद्देशक होने का निर्देश दिया है, पर यह अभिमत किसका है ? इस संबंध में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। भगवती की वृत्ति में भी ऐसा कोई संकेत नहीं है। संभव है जयाचार्य को प्राप्त किसी प्रति, टब्बे या चूणि में उनतीस उद्देशकों का निर्देश रहा होगा। *लय–वनमाला ए निसुणी जाम
सो ही सयाणो अवसर साधे यह ढाल उक्त दोनों रागिनियों में गाई जा सकती है।
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