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________________ (व्याकरण-विमर्श वा०-- प्र परा अप सम अनु अव निस् निर् दुस् दुर् अभि वि अधि इत्यादिक ए प्र आदि देई नैं उपसर्ग कहिए। च वा अह् एवं नूनं स्वस्ति अस्ति इत्यादिक एच आदि देई नैं निपात कहिए । अनैं वलि प्र प्रमुख उपसर्ग वलि च प्रमुख निपात ए बिहु नै अव्यय संज्ञा कहिए । ७. हस्ती पक्षं एम समहिये, उपसर्ग १०. भगवति सूत्रं सद् आख्यातं लक्षण गजपक्षे पण प्रसिद्ध कहिये, डा तेह निपात हुये पिण वारू, अव्यय ८. घन उदार रख ए सूते छे, हस्ती घन ते मेघ तणी पर सारं ध्वनि ६. सूत्र विभक्तिलिंग करि युक्तं, हस्ती इम पुरुष - चिह्न रचना करि सहितं एह अर्थ पंडित जन पिण रूडा १४. १५. १६. १७. तेह तेह J १८. उपद्रव रूप डा लक्षण ११. एह भगवती देव अधिष्ठित ते गणधर श्रुतदेवत गज पक्षे देवांशी कहिये, सुरवर पिण तनु सेव १२. सुवर्णमंडित समय उद्देश, वर अक्षर सोभित सलहिये ॥ सुविशेष जय-कुंजर गज पक्षे जाणी, शिरोभाग अति प्रशस्त माणी || १२. अद्भुत परिव नानाविध लेहं छत्तीस सहस्र प्रश्न श्रुतदेहं । चिहुं अनुयोग रूप चिहुं चरणं, कहियै छे हिव तास विवरणं ॥ Jain Education International कहिये। सुचारू ।। कहिये छै । गीतक-छंद वर प्रथम जे द्रव्यानुयोगज द्वितिय-अंगादिक वि फुन चरण न करणानुयोगज प्रथम अंगादिक अखें || गणितानुयोगज तेह चंदपणत्ति प्रमुख विषै वही । फुन तुर्य धर्मकथानुयोगज सूत्र ज्ञातादिक सही' ॥ अनुयोग ते व्याख्यान ए चिहुं, पंचमांग विषै कह्या । पद च्यार जय-कुंजर तर्णं वर सखर ही सोभे रह्या ॥ *ज्ञान चरित्र रूप वे नयनं जय-कुंजर भी चित लहँ चयनं । द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक ही वे न रूप दंत मूशन ही ॥ वर निश्चय नयन व्यवहारं वे न रूप सखर सुविचार | उम्मत उच्च कुंभस्थल दोय, जय कुंजरगंज ने अवलोय || १. मध्यकाल में आगमों के संदर्भ में अनुयोग संबंधी मान्यता के अनुसार सूत्रकृतांग को द्रव्यानुयोग में और शताधर्मकथा को धर्मानुयोग में रखा गया है, किन्तु पूर्णि काल तक यह मंतव्य प्रचलित नहीं हुआ था। दशवैकालिक के चूर्णिकार स्थविर अगस्त्य सिंह के अनुसार अनुयोगों का वर्गीकरण इस प्रकार है चरणकरणानुयोग कालिकत आदि धर्मानुयोगभाषित आदि, गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति आदि, द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद (द० चू० पृ० २ ) *लय - वनमाला एनिसुणी जा ४ भगवती-जोड़ अक्षय पक्षे हिव गंभीर शब्द पक्षे तसु सुखकारं ॥ उक्तं । ग्रहितं ॥ अवदातं । लहिये || सेवित ८. घनोदारशब्दस्य ६. लिङ्गविभक्तियुक्तस्य १०. सदाख्यातस्य सल्लक्षणस्य ११. देवताधिष्ठितस्य १२. सुवर्णमण्डितोद्देशकस्य १२. नानाविधाद्भुतप्रवरचरितस्य १७. ज्ञानचरणनयनयुगलस्य । For Private & Personal Use Only ( वृ०० १) ( वृ० प० १) (२००१) ( वृ०-१० १) ( वृ०प०१) (२००१) इयानपास्तिकनयन्ति मुलस्य । (१०-१० १) १८. विचारयसमुन्नतकुम्भस्य (बुच्य० १) www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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