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यतनया गृह णाना भुजानाश्च शुद्धाः ।
चूणि-कारणिया असिवादिसु अहवा उधिकारणा लेवस्स वा बहुगुणं वा गच्छे आयरियादी आगाढे ऐतेहि कारणेहि कारणिया गेण्हता य भुंजता य शुद्धा।
(वृहत्कल्प चूणि उद्देशक ५ पत्र २०८) प्रस्तुत ग्रन्थ में समीक्षा के अनेक प्रकरण हैं। यहां कुछेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। समीक्षा प्रकरणों की पूरी सूची समग्र ग्रन्थ की बृहत् प्रस्तावना में उपलब्ध हो सकेगी।
अर्थ भेद और पाठान्तर जयाचार्य ने भगवती सूत्र का पद्यानुवाद किया, उस समय पाठ संशोधन की प्रणाली प्रचलित नहीं थी। हस्तलिखित आदों में अनेक प्रकार के पाठ उपलब्ध थे। चूणिकार और वृत्तिकार ने पाठान्तरों का संकलन किया था। जयाचार्य ने उन पाठान्तरों की चर्चा की है। वृत्ति संक्षिप्त है। उसमें प्रत्येक पाठ की व्याख्या उपलब्ध नहीं है, इसलिए हस्तलिखित आदर्श में जैसा पाठ मिला वैसा ही ग्रहण कर उसका अर्थ किया गया। उदाहरण के लिए भगवती-जोड़ पृ० १०२ का पाद-टिप्पण १ द्रष्टव्य है।
भगवती-जोड़ में 'लंगुवन' का उल्लेख किया गया है, यह उल्लेख वत्ति में नहीं है। जयाचार्य के सामने जो भगवती का हस्तलिखित आदर्श था, उसमें यह पाठ मिला और उसका उन्होंने उल्लेख किया
अलसी कुसूबा नों वन बलि, धवला सरसव नों वन्न।
___ बंधु जीव फूल दोपहरिया, बलि लंगु-वन सोभन्न ।' जयाचार्य ने पाठ-संशोधन की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने स्पष्ट संकेत किया है कि इस विवादास्पद का निर्णय अनेक प्रतियों का अवलोकन कर किया जाए--पन्नवणा १५ पदे केयक परत में पांचूं इन्द्रिय नी विषय जघन्य आंगुल नै असंख्यातमै भाग कही, अनै केयक परत में चक्षु इन्द्री नी विषय जघन्य अंगुल नै संख्यातमै भाग कही, ते घणी परता देख निर्णय कीजो।'
राजस्थानी भाषा को जयाचार्य का अवदान राजस्थानी का शब्द-भंडार बहुत समृद्ध है। उसकी समृद्धि में जयाचार्य का बहुत बड़ा अवदान है। उन्होंने प्राकृत के सैकड़ों-सैकड़ों शब्दों का राजस्थानीकरण किया। उनमें शब्दों को मृदु बनाने की विशिष्ट कला थी। अर्धमागधी के लिए राजस्थानी में 'अधमागधी' शब्द जितना संगत है उतना 'अर्ध मागधी' नहीं है।' प्रस्तुत रचना में प्राकृत, संस्कृत दोनों के शब्द राजस्थानी में प्रयुक्त किए गए। उदाहरणस्वरूप-चरित और चरित्र, संवुड और संवृत । इस दृष्टिकोण से यह पुरा ग्रन्थ पठनीय है।
प्रस्तुत रचना पद्यात्मक और तुकान्त है। गीतिका की लय और तुक का निर्वाह करने के लिए शब्दों की यथोचित कांट-छांट भी की गई है, उनका अपभ्रंशीकरण भी किया गया है। उदाहरण के लिए इकार, स्थित, अध्येन, गुणठाण, जघन, दुप्रयोग आदि शब्द उद्धृत किए जा सकते हैं । 'इकार वाक्यालंकार'-इस पद में लय की दृष्टि से इव कार के स्थान में इकार का प्रयोग किया गया है। यह प्राकृत का अनुसरण है। प्राकृत में छंदोभंग नहीं किया जा सकता, किन्तु वर्ण का लोप किया जा सकता है। दशवकालिक के प्रथम अध्ययन (१३) में 'एमेए' का प्रयोग मिलता है। उसमें छंद की दृष्टि से वकार का लोप किया गया हैएवमेए एमेए। राजस्थानी में ऐसे शब्दों का बहुत प्रचलन है। एक बार का संक्षिप्त रूप 'एकर' प्रयोग में आता है।
१. भगवती-जोड़ श०१उ०२ ढा० ६।५२ २. भगवती-जोड़ श०२० ४ ढा० ३६।२४७ ३. देखें--ग्रंथ और ग्रंथकार।
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