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पुलाक नियंठा नी स्थित जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ।'
यहां स्थिति के अर्थ में स्थित्त' शब्द का प्रयोग तुक मिलाने के लिए किया गया है। इसी प्रकार निम्नलिखित शब्द प्रयुक्त हैं
अध्ययन
गुणस्थान
जघन्य
दुष्प्रयोग षष्ठितंत्र
मध्यम
भक्तपान
१. भगवती-जोड़ श० १३० १० ५ १३२ २. भगवती-जोड़ श० २ उ० १ ढा० ३५।३८४१
३. भगवती-जोड़ श० १३० १ ० १।१६६
ग्रन्थ और ग्रन्थकार
जयाचार्य ने प्रस्तुत सूत्र के अनुवाद में अनेक आगमों तथा ग्रन्थों का प्रयोग किया है। उनमें औपपातिक और प्रज्ञापनाये दो प्रमुख हैं। भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन के लिए बार-बार औपपातिक सूत्र देखने का निर्देश है। जयाचार्य ने निर्दिष्ट संक्षिप्त पाठ का कहीं-कहीं कुछ विस्तार भी किया है
धर्मकथा भणवी इहां उबवाई रे मांय ।
एह तणो विस्तार छे, तेम इहां कहिवाय ॥ देवे श्री जिन देशना अमृतवाणी ऐन । आर्य अनार्य सांभली चित में पामै चेन ॥ चित मांहि चैन अत्यंत पामै शरद नव घन सारिखो । गंभीर मधुर कोंच दुंदुभि, पवर रव स्वर पारिखो || भाषा भली अधमागधी फुन वाणि योजनगामिनी । पणतीस गुण करि परवरी, भव्य सर्व नै हितकामिनी ।।
भगवती वृत्ति प्रमुख आधार रही है। धर्मसीह कृत यंत्र का अनेक बार उल्लेख मिलता है।' वियट्टभोइ
नमो बंभीए लिखिए, लिपि कर्ता नात्रेय । चरण सहित घर जिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ॥ १
भगवती-जोड़ श० १ ० ३ ० १२ २४
अर्थ कियो धर्मसीह, मिथ्यात्वी ए परमादी । अशुभ जोगी पिण तेह, समदृष्टि कंख न वाधी ॥२
भगवती-जोड़ श० १३० ३ ० १३०५
तर अंतरा तो अरथ कियो धर्मसी ताय । केतलुंक ते माहिल, कहिये छै वर न्याय ॥ ३
भगवती-जोड़ श० १३०३ डा० १४१२२
ए सर्व अर्थ आख्यो टीका सूं, उबट्ठाएज्जा आद ए च्यारू आलावा नौ अर्थ धर्मसी, कीधूं धर अह्लाद ॥४
भगवत-जोड़ श०१ उ० ३ ढा० १४।३४
अध्येन
गुणठाण
जघन
दुप्रयोग
साठतंत्र
ए च्यारू आलावा नो अर्थ धर्मसी कीधो ते कह यूं एह । अपक्रम नो इज प्रश्न गौतम हिवं पूछे प्रेम धरेह ॥५
मज्झम मज्झिम
भात पाणी
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