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________________ ४२. जिन कहै माई-प्रमत्त विकुवै, अमाई नहीं विकुर्वत । छ? गुणठाण करै ए कार्य, आगल नांहि करंत ।। ४३. वृत्ति विषै माई अभिजुजइ, पाठ इसो कहिवाय । माई नों अर्थ कषायवान ते, अभिजुजइ अभियोग कराय ।। ४४. अधिकृत वाचना विष दीसै छै, माई विकूव्वइ जाण। तेह विर्ष अभियोग तिको पिण, विकूर्वणा पहिछाण ।। ४५. विविध प्रकार तणों जे क्रिया, विक्रिया तास कहाय। विक्रिय - रूपपणां थी तेहने, विकुर्वणा कहिवाय ।। ४६. हे प्रभु ! जे माई लब्धि फोडण रो, स्थानक नांहि आलोय। बिना पडिकमियां काल करै ते, आभियोगिक सुर होय? ४२. गोयमा ! मायी विकुब्बइ, नो अमायी विकुब्वइ । (श० ३३२१८) ४३. 'माई अभिजुजइ' त्ति कषायवानभियुक्त इत्यर्थः । (वृ०-५० १६१) ४४. अधिकृतवाचनायां 'माई विउब्बई' त्ति दृश्यते, तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणेति मन्तव्यं । (व०-प० १६१) ४५. विक्रियारूपत्वात्तस्येति । (वृ०-५० १६१) ४७. आभियोगिक ते आदेशकारी, सेवग - देवता हत। बारमा कल्प लग सेवग में, एक विष उपजत ।। ४८. विद्यादिक नों प्रजजवो बलि, लब्धि फोडवै कोय । सेवग - देव थावा नां कारण, वृत्ति विशेष सुजोय ।। ४६. प्रायश्चित्त सन्मुख थयां अमाई, आलोवी ते स्थान । अणाभियोगिक देवलोक विषै ए, उपजै इक में जान ।। ४६. मायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, कहिं उबवज्जइ? गोयमा ! अण्णयरेसु आभियोगिएस देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ। (श० ३।२१६) ४७. 'अण्णयरेसु' तिआभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्तीति कृत्वाऽन्यतरेष्वित्युक्तम्। (वृ०-५० १६१) ४८. करोति च विद्यादिलब्ध्युपजीवकोऽभियोगभावनाम् । (वृ०-५० १६१) ४६. अमायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, कहिं उववज्जइ? गोयमा ! अण्णयरेसु अणाभियोगिएसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जइ। (श० ३।२२०) ५०. हे गोतम ! इम श्री जिन भाखै, छेहला प्रश्नज मांय । उत्तर स्थान गोयम नाम नायो, तिण सं छेहडै आय' ।। ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! कह्यो छै, श्री गोयम गणधार। हिवै उद्देशा नी संग्रहणी गाथा, संक्षेपे सुविचार ।। ५२. इत्थि असि नैं पताका जनोई, पालथी अनैं पल्यंक। अभियोग विकुर्वण माई, संग्रह - गाहा सुअंक ।। ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० ३।२२१) ५२. इत्थी असी पडागा, जण्णोवइए य होइ बोद्धये। पल्हस्थिय पलियंके, अभिओग विकुव्वणा मायी। (श० ३।२२१ संगहणी-गाहा) ५३. अंक पैतीसमुद्देश कह्य ए, सात साठमी ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादै, 'जय-जश' गण गुणमाल ।। तृतीय शते पंचमोद्देशकार्थः ।।३।५।। १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ३।२१२-२२० के सभी प्रश्नों के उत्तर में गौतम को सम्बोधित कर उत्तर दिया गया है। संभव है जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में 'गोयमा' शब्द नहीं था, इसीलिए उन्होंने ढा० ६७१५० में सब प्रश्नों के अन्त में 'गौतम' शब्द उल्लिखित होने की सूचना दी है। ३८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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