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सोरठा
४२. शोभनत्वानुरूपत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतं तवागमनमित्यर्थः ।
(वृ०-५० ५१७)
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४२. शोभन शब्द संगीत, फुन अनुरूपपणुं प्रवर ।
ए बिहु धर्म सहीत, तुझ आगमन थयो इहां ।। ४३. *इम प्रश्न रूप बतलाया, पछयां दोषण नहिं पाया।
खंधकजी! निसुणो वाणो लाल, खधया! ४४. हे खंधक ! तुझनै ताह्यो, इण नगरी सावत्थी माह्यो।। ४५. पिंगल निर्ग्रन्थ पिछ। णो, वैसालिक श्रावक जाणी।। ४६. ए प्रश्न पूछ्या बुद्धिवंते, मागध ! स्यू लोक सअंते ।।
कै लोक अणत कहायो, इम तिमहिज सर्व सुणायो ।। ४८. जेणेव कहता जाणी, जे दिशा विषै पहिछाणी।।
६. इहं कहितां अवलोई, जिन समवसरण ए होई ।। ५०. तेणेव कहितां तिण दिश, झट आया छोडी अमरस ।। ५१. हे खंधक ! ते निश्चै कर, समर्थ ए अर्थ बराबर ॥
वा०—'अत्थेसमत्थे" एहनों अर्थ-अत्थि कहितां अस्ति—छ । एस कहितां ए पूर्वे कह्यो ते, अत्थे कहिता अर्थ। अछे समठेत्ति पाठांतरं। काकु पाठ थी कहिवो,
अर्थ स्यूं समर्थ–साचो छै? इति प्रश्न । ५२. तब बोलै खंधक वाचो, हंता अत्थि ए साचो।।
गोयमजी! तुझ किण भाखी लाल गोयमा!] ५३. खंधक गोतम प्रति सारो, बोलै तब वचन तिवारो।
कुण तथारूप बर ज्ञानी, तिण ज्ञान बले करि जानी।। ५५. कुण अछ इसो तप ध्यानी, तप बल सुर सन्निधि जानी।।
४४-४७. से नणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं
नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिएमागहा ! कि सोते लोगे? अणते लोगे? एवं तं चेव
जाव ४८, ४६. जेणेव इह,
यस्यामेव दिशीद भगवत्समवसरणं। (व०प०११७) ५०. तेणेव हब्वमागए। तस्यामेव दिशि।
(वृ०-प० ११७) ५१. से नूणं खंदया ! 'अछे समठे' ?
वा०— 'अत्थेसमत्थे' ति अस्त्येषोऽर्थः ? 'अट्ठे समठे' ति पाठान्तरं, काक्वा चेदमध्येयं, ततश्चार्थः कि 'समर्थः'
संगतः ? इति प्रश्नः स्यात्। (वृ०-५० ११७) ५२. हंता अत्थि।
(श० २।३६)
५४. कण
५६. मुझ हृदय-वारता छानी, किण प्रगट करी? ते जानी।।
गोतम कहै धर्माचारज, मुझ धर्मोपदेशक आरज ।। श्रमण तपस्वी धीरं, भगवत श्री महावीरं ।।
उत्पन्न-ज्ञान • दर्शन - धर, ए क्षायिक भावे जिनवर ।। ६०. बंदनादि जोग्य वदीता, जिन रागद्वेष ने जीता।
५३, ५४. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं
वयासी–से केस ण गोयमा ! तहारूवे नाणी वा ५५. तवस्सी वा, तपस्वी च तपः सामर्थ्याद्देवतासान्निध्याज्जानातीति।
(वृ०-प० ११७) ५६. जेणं तव एस अट्ठे मम ताब रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं तुम जाणसि?
(श०.२२३७) ५७-५६. तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोतं एवं
वयासी-एवं खलु खंदया ! ममं धम्मायरिए धम्मोव
देसए समणे भगवं महावीरे उप्पण्णनाणदंसणधरे ६०. अरहा जिणे अर्हद्वन्दनाद्यर्हत्वात्, जिनो रागादिजेतृत्वात्।
(वृ०-प० ११८) ६१, ६२. केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणए
केवली असहायज्ञानत्वात्, अत एवातीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायकः।
(वृ०-५० ११८)
६१. असहाय ज्ञान छ जेहन, तिण स क ह्या केवली तेहने ।। ६२. विहं काल विजानक ध्यानी, त्यांस बात नहीं कोइ छानी ।।
*लय-सुखपाल सिंघासण लायजो राज १. भगवती श० २।३६ में 'से नणं खंदया! अछे समठे' पाठ है। इसी पाठ के आधार
पर जोड़ की गई है। उससे आगे-वातिका में 'अत्थेममत्थे' पाठ देकर 'अस्त्येषोऽर्थः' यह रूपान्तरण किया है और 'अछे समठे' पाठ को पाठान्तर के रूप में स्वीकृत किया है।
२०६ भगवती-जोड़
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