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________________ ११८. असणादिक अवलोय, निग्रंथ नै प्रतिलाभता। विचरै श्रावक सोय, आगल एहवो पाठ छै ।। ११६. पिण अन्य भिक्षु प्रतेह, विचरै दान देता छता। इसो पाठ न कहेह, तिण सू मुनि नै अर्थ ह ।। १२०. आणंद श्रावक सार, जाव शब्द में पाठ है। उसिह - फलिहा धार, अवंगुयद्वारा बली ।। १२१. अन्यतीर्थी नै दान, देवण देवावण तणा। आणंद त्याग सुजान, प्रत्यक्ष आख्यो पाठ में ।। १२२. अन्यतीथि नां ताहि, भिक्षु प्रति देव नहीं। बली दिवावै नाहि, विचरै मुनि प्रतिलाभतो ।। १२३. तिण सं आनंद जोय, द्वार उघाड़ा राखवै । ए किण अर्थे होय ?, बुद्धिवंत न्याय विचारजो ।। १२४. द्वितीय अंग नी ताय, वृत्ति दीपिका नै विषै। सम्यक्त्व दढ़ सवाय, अर्थ एकहिज आखियो।। १२५. शीलंकाचार्य सोय, अर्थ बिहं पद नों कियो। अति सम्यक्त्व दृढ जोय, बली दीपिका ने विषै। १२६. अन्य आचारज वाय, बार - बार मूख आणता । पिण शीलांक सहाय, कह्य तिको मानै न किम ।। १२७. श्रावक जश नै काज, दान दियै अन्य भिक्ष प्रति । पिण धर्म पुन्य सुख साज, तिण माहै जाण न ते॥ १२८. *इहां तुंगिया अधिकार, उसिहफलिहा आखिया। बलि अवंगयद्वार, तास न्याय ओलखाविया' ।। (ज० स०) १२६. प्रोतिकारक लोकां भणी, प्रतीतिकारक थाय। अन्त:पुर वा घर विषै, प्रवेश छै अधिकाय ।। १३०. अतिहि धार्मिकपणे करी, सर्व स्थान विषेह। गयां आशंका न ऊपजै, प्रीति हीज उपजेह ।। वा०—अन्य आचार्य कहै छ–तेहना घर मां कोई सत्पुरुष प्रवेश कर तो तेहथी तेहनै अप्रीति न हुवे, कारण तेहनै ईर्ष्या भाव नथी। अथवा अप्रीतिकारिया अंत:पुर अनै पर-घर नै विष प्रवेश छोड्यो छ जिण। तथा दूजै श्रुतखंध सूयगडांग अध्येन सातवै की वृत्ति में शीलंकाचार्य कह्यो ते कहै छ-निषेध्यो अन्य जन नों प्रवेश जे स्थानक-भंडार, अंतःपुरादिक, तेहनै विष पिण प्रसिद्ध श्रावक नां गुण करी अस्खलित प्रवेश छै जेहनों। १३१. पर्व दिवस अनुष्ठान ते, पोसह अरु उपवास। चउदश नै फुन अष्टमी, पूनम अमावस तास ।। १२६. चियत्तंतेउरधरप्पवेसा 'चियत्तो' ति लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा। (वृ०प० १३५) १३०. अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयास्त इत्यर्थः । (व०-५०१३५) वाल-अन्ये त्वाहु:---'चियत्तो' ति नाप्रीतिकरोऽन्तः पुरगृहयो. प्रवेशः-शिष्टजनप्रवेशनं येषां ते तथा, अनीर्ष्यालुताप्रतिपादनपर चेत्थं विशेषणमिति, अथवा 'चियत्तो' त्ति त्यक्तोऽन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्यथा कथञ्चित्प्रवेशो यस्ते तथा। (व०-प० १३५, १३६) १३१. चाउद्दसट्ठ मुद्दिठपुण्णमासिणीसु पौषधं--पर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवास:--अवस्थानं पौषधोपवासः... उद्दिठ्ठ' त्ति उद्दिष्टा--अमावस्या। (वृ०-प० १३६) *लय-प्रभवो मन में चितवै श०२, उ०५, ढा०४१ २६३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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