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१००. अथवा वृत्ति मझार, द्वितीय अध्ययन अर्थ इम ।
उसिहफलिहा सार, स्फटिक जेम अंत:करण ।। १०१. इहां का छ एह, मौनींद्र दर्शण पामवै ।
अति ही तुष्टपणेह, मन छै ते श्रावक तणां ।। १०२. बलि अवगुयद्वार, घर नां द्वार जड़े नहीं।
रहै उघाड़े द्वार, तस कारण आगल कहै ।। १०३. सम्यग् दर्शण पाय, डरै नहीं किणही थकी।
शोभन मारग ताय, ते प्रति आदर करी॥ १०४. बली सातमें झयण, जाव शब्द में पाठ ए।
उसिहफलिहा वयण, स्फटिक तणी पर निमल जश ।। १०५. तथा अवंगुयद्वार, घर नों द्वार जड़े नहीं।
परतीथिक पिण धार, तस घर में पैसी करी।। १०६. जो कोइ भाख जेह, तसं परिजन पिण छै तिकै।
सम्यक्त्व थकीज तेह, चलायवा समरथ नहीं ।। १०७. शीलंकाचार्य ताम, बिहुँ पद अर्थ कियो इसो।
न कह्यो भिक्षुक नाम, संवत् सात सौ ते थया ।। १०८. ए चिहुं ठामै सार, अर्थ एकहिज आखियो।
पिण भिक्षुक नों धार, द्वितिय अर्थ कोधो नथी ।। १०६. भगवती - वृत्ति मझार, अन्य आचार्य नों कथन ।
द्वितीय अर्थ विस्तार, भिक्ष - प्रवेश नों कियो।। ११०. मुनि नैं दे चिहुं आ'र, अप्रासुक अनेषणीक ।
अष्टम शतक मझार, अल्प पाप बहु निर्जरा।। १११. तिहां वृत्ति रै माय, कारण पडियां थी कह्यो।
अन्य आचारज वाय, कारण बिण पिण थापियो।। ११२. ए बिहुँ विरुद्ध कहाय, मानं कारण सं जिकै ।
अन्य आचारज वाय, निकारण मानै न किम ।। ११३. मान भिक्षु प्रवेश, अन्य आचार्य नों कथन।
बिण कारण दै एस, ते पोते पिण मानै नथी। ११४. वृत्ति विर्ष जे वाय, सूत्र थकी मिलतो अरथ ।
तेह मानणो ताय, अणमिलतो नहिं मानणो।। ११५. भिक्षु मुनि ने काज, द्वार उघाड़ा राखवै।
ए पिण अर्थ समाज, मिले न्याय इण रीत सं ।। ११६. सहजै खुल्या किवाड़, जड़े नहीं ते द्वार प्रति ।
मुनी भावना सार, भावे श्रावक दान नी॥ ११७. वलि अपर भेषधार, पट खोली माहै धसे ।
मुनि नांवे खोल किवाड, तिण सं ए कहि भावना ।।
२६२ भगवती-जोड़
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