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________________ २३. मिश्र थी शून्यकाल अनंतगुणो, नरक थी नस वणस्सइ थाय। काल अनन्तानन्त तिहां, पछै त्रस होय नरके जाय ।। २४. वनस्पती नै नरक नों, अंतर उत्कृष्ट जाण । काल अनंता नो कह्यो, तिण सूं शून्य अनंतगुणो माण ।। २५. हिवै अल्पबहत्व तियंच में, सर्व थोड़ो अशन्यकाल । ते अंतर्महुर्त विरह - काल छै, समुच्छिम विकलेंद्री नै न्हाल ।। २६. एकेंद्री नै तो ऊपजवा तणों, नीकलबा नों विरह न कोय । ते विरह तणा अभाव थो, अशून्यकाल नहि होय ।। २७. तिण सू सर्व थोड़ो अशून्यकाल छै, ते समूच्छिम आश्री जाण। बलि विकलंद्री आश्री कह्या, तस, अंतर्महुर्त प्रमाण ।। २८. अशन्य थी मिथकाल अनंतगणो, नारकी नीं पर जान। तिर्यंच में शून्य-काल हुवै नहीं, त्यां थी नीकल रहै किण स्थान ? २३, २४. सुन्नकाले अणंतगुणे (श० १।१०८) सर्वेषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालमवस्थानात्, एतदेव बनस्पतिष्वनन्तानन्तकालावस्थानं जीवानां नारकभवान्तरकाल उत्कृष्टो देशितः समय इति। (वृ०-०४८) २५-२७. तिरिक्खजोणियाणं सव्वत्थोवे असुन्नकाले स चान्तर्मुहर्त्तमात्रः अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चामुक्तस्तथाऽपि विकलेन्द्रियसंमूच्छिमानामेवावसेयः, तेषामेवान्तर्मुहर्तमानस्य विरहकालस्योक्तत्वात्, एकेन्द्रियाणां तुद्वर्त्तनोपपातविरहाभावेनाशून्यकालाभाव एव। (वृ०-५० ४८) २६. अल्पबहुत्व मनुप्य देवता तणों, तोन काल नी जोय। नरक तणी पर जाणज्यो, श्री जिन - वच अवलोय ।। ३०. हे प्रभु! नरक विष रह्यो, तिरि मनुष्य देव भव मांय। अल्प बहुत्व काल किहां रह्यो?, किहां तुल्य विशेषाधिक थाय ।। ३१. जिन कहै-थोड़ो काल मनुष्य में, असंखगुणो नरक रै मांहि । रह्यो देव में काल असंखगुणो, अनंतगणो तियंच में ताहि ।। २८. मिस्सकाले अणंतगुणे (श० १।१०६) शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव, यतो वार्त्तमानिकसाधारणवनस्पतीनां तत उद्वृत्तानां स्थानमन्यद् नास्ति। (वृ०-५० ४८, ४६) २६. मणस्म-देव अणंतगुणे, सुन्न काले अणंतगुणे। (श० १।११०) ३०, ३१. एयस्स णं भते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठण कालस्स, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकालस्स, मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकालस्स, देवसंसारसंचिट्ठणकालस्स कयरे कयरेहितो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? गोयमा! सव्वत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, नेर झ्यसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, देव संसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले अणंतगुणे । (श० १११११) ढाल भली ए आठमी, दूजा उदेशा नों इक देश । भिक्षु भारीमाल ऋपराय थी, 'जय' सुख हरष विशेष ।। ढाल : रहै जीव संसार में, अथवा मोक्ष पिण होय । इण आशंका नै विषै, प्रश्न गोयम हिव सोय ।। हे भदंत ! ए जोव ते, अतक्रिया करत ? मोक्ष-प्राप्ति सर्व-कर्म-क्षय, इम वृत्तिकार कहत ।। १. कि संसार एवावस्थानं जीवस्य स्यादुत मोक्षेऽपि ? इति शंकायां पृच्छामाह--- (वृ०-प० ४६) २. जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा? कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः । (वृ०-प०४६) श०१, उ०२, ढा०८,६६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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