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________________ ७. हे प्रभु ! कतिविध नरक में, संसार - संचिट्ठणकाल । जिन कहै-तीन प्रकार छ, शून्य अशून्य मिश्र काल न्हाल ।। ८. प्रथम हिवै अशन्य काल नै, ओलखावं छू सोय। ते जाण्यां छतां शून्य मिश्र ने, ओलखणा सोहरा जोय ।। ६. वर्तमान काले सात नरक में, नेरइया वर्तं अशेष । त्यां मांहि थी एक न नीकल्यो, ऊपनों पिण नहि एक ।। १०. जे जीव निकल पाछो ऊपनों, जित निकल्यो ऊपनों नाय । सात नरक में हुंता जिता रह्या, ए अशून्य काल कहिवाय ।। ११. जे नरक थी निकल ऊपनो जित, त्यां मांसू नीकल्यो एक। अथवा एक बाकी रह्यो, ए मिथ काल संपेख ॥ १२. जे नरक थी निकल ऊपनों जितै, सातू नरक रै माय। सर्व आगला नीकल्या, ए शून्य काल कहिवाय ।। ७. नेरइयसंसारचिट्ठणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले ॥ (श० ११०४) ८-१०. तत्राशून्यकालस्तावदुच्यते, अशून्यकालस्वरूपपरिज्ञाने हि सतीतरौ सुज्ञानौ भविष्यत इति, तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीषु ये नारका वर्तन्ते तेषां मध्याद्यावन्न कश्चिदुद्वर्त्तते न चान्य उत्पद्यते तावन्मात्रा एव ते आसते स कालस्तान्नारकानङ्गीकृत्याशून्य इति भण्यते। (वृ०-५० ४७) ११. मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्वत्ताः यावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः। (वृ०-प० ४७) १२. शून्यकालस्तु यदा त एवादिष्टसामयिका नारकाः साम स्त्येनोद्वत्ता भवन्ति नैकोऽपि तेषां शेषोऽस्ति स शून्यकाल इति। (वृ०-५० ४७) १३-१६. इदं च मिश्रना रकसंसाराबस्थानकालचिन्तासूत्र न तमेव वार्त्तमानिकनारकभवमङ्गीकृत्य प्रवृत्तम्, अपि तु वार्त्तमानिकनारकजीवानां गत्यन्त रगमन तत्रवोत्पत्तिमाश्रित्य, यदि पुनस्तमेव नारकभवमंगीकृत्येदं सूत्र स्यात्तदाऽशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणता सूत्रोक्ता न स्यात्। (वृ०-५० ४८) सापू १३. ए वर्तमान भव नरक नी, स्थिति आश्री आख्यो नाय। सात नरक में नेरइया तणां, जीव आश्री कहिवाय ।। १४. आगल अल्पबहुत्व अशुन्य काल थी, अनंतगुणो कह्यो मिथकाल । तिण सं ते जीव आश्री अछ, पिण भव आश्री मत भाल ।। १५. भव आथी जो ए हुवै तो, अनंतगुणो किम थाय ? । उत्कृष्ट सागर तेतीस नों, आयु नरक रै माय ।। १६. इतला माहै सहु नीकलै तो, अशून्य काल थी जोय । असंखगुणो मिश्रकाल ह्व, पिण अनंतगुणो नहि होय ।। १७. सर्व थोड़ो अशून्य काल छै, बारै मुहर्त विरह अपेक्षाय। मिश्रकाल अनंतगुणो नां हवै, तिण स भव आश्री नहि थाय ।। १८. तिर्यंच - गति विर्ष अछ, अशन्य मिथकाल दोय। मनुष्य अनै देवता मझै, काल तीनूं अवलोय।। १६. प्रभु ! नरक रहिवा तणो, शून्य अशून्य मिश्रकाल माय। कुण-कुण अल्प वहत्व छ, तुल्य विशेषाधिक कहिवाय? || २०. जिन कहै-सर्व थोड़ो अछ, अशून्य काल उपदिष्ट । ऊपजवा निकलवा नों नरक में, विरह बारै मुहूर्त उत्किष्ट ।। १७. अत उत्कर्षतो द्वादशमौहुत्तिकाशून्यकालापेक्षया मिश्र कालस्यानन्तगुणत्वाभावप्रसंगादिति। (वृ०-प ०४८) १८. तिरिक्खजोणियसंसारपुच्छा गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--असुन्नकाले य, मिस्सकाले य। भणुस्साण य देवाण य जहा ने रइयाणं। (श०१।१०५-१०७) १६. एतस्स णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठणकालस्स—सुन्न कालस्स, असुन्नकालस्स, मीसकालस्स य कयरे कयरे हितो अप्पे वा ? बहुए वा ? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा? २०. गोयमा ! सव्वत्थोवे असुन्नकाले नारकाणामुत्पादोद्वर्त्तनाविरहकालस्योत्कर्षतोऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात्। (वृ०५० ४८) २१, २२. मिस्सकाले अणंतगुणे मिथाख्यो विवक्षितनारकजीवनिर्लेपनाकालोऽशून्यकालापेक्षयाऽनन्तगुणो भवति, यतोऽसौ नारकेत रेवागमनगमनकाल:, स च असबनस्पत्यादिस्थितिकालमिथितः सन्ननन्तगुणो भवति, वसवनस्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वाद्, स च नारकनिर्लेपनाकालो वनस्पतिकायस्थितेरनन्तभागे बर्तत इति। २१. तहया तेहथी मिश्रकाल अनंतगुणो, अशून्य काल वालो जे जीव। गमनागमन वस वणस्सइ, काल अनंतगुणो है अतीव ।। २२. बनस्पति नां काल थी, अशन्य काल अनतमै भाग। तिण सं ते जीव त्रस तरु नरक में, मिश्र अनन्तगुणो इम लाग ।। १६ भगवती-जोड़ dain Education Intemational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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