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________________ अरुहंताणं पिण जोय, पाठांतर वर अवलोय। तत्र अरुह नहि उपजत, क्षीण कर्म बीज थी मंत ।। बीज दग्ध छतै ज्यू अत्यंत, अंकुर प्रगट नहिं हुंत । तिम दग्ध किया कर्म-बीज, भव-अंकर उग नहींज ।। नमस्कार करिवा नै योग्य, वर्ते छै ए सुप्रयोग्य । किण कारण ए कहिवाय, तमु आगल सुणिय न्याय ।। भव भ्रमण भीमबन भारी, भयवंत जीवां नैं विचारी। अनुपम वर आनंद रूप, शिव पद पुर पंथ अनूप ।। ते देखाडण निज स्वयमेव, परम उपगारी अरिहंत देव । तिण कारण थी सुविधान, नमस्कार करिवा योग्य जाण। ७१, ७२. 'अरुहंताण' मित्यपि पाठान्तरं, तत्र 'अरोहद्भ्यः ' अनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।।" (वृ०-प०३) ७३-७५. नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमणभीतभूता नामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति । ७५. ७६. नमो सिद्धाणं नमस्कार थावो बलि, सिद्ध भणी सुखकार । श्रोता शव्दारथ सुणो, अमल चित्त अवधार ।। (श० १११) ७७, ७८. सितं—बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं—दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः। (वृ०-५० ३) गीतक-छंद ७७. सित् बद्ध जे अठ कर्म इंधन, दीप्त जाज्वलमान हो। वर शुक्ल ध्यान सुअनल करि, ध्मा दग्ध कृत गुणखान ही।। ७८. निरुक्तविधि करि आखिये, सित ध्मात शब्द सुस्थान ही। वर सिद्ध शब्द ज नीपनो, इम वृत्तिकार बखान ही। वा०—सितं कहितां बंध्या जे आठ कर्म रूप इंधण तेहन, ध्मात कहिता दहाव्या जाज्वलमान शुक्ल ध्यान रूपणी अग्ने करी नै। एहवा जे सिद्ध मुक्ति नै विषै विराजमान छ तेह भणी नमस्कार थाओ। निरुक्त ते पदभंजन, ते निरुक्त विधि करिके सित अन ध्मात ए बिहुँ शब्द नां स्थानक नै विष सिद्ध इसो शब्द नीपनों। ७६. अथवा विधु गति अर्थ में, इह वचन थी महिमानिलु। संसार में नाव इसी, सिधपुरी गमन कयूं भलं ।। वा०—षिधु धातु गति अर्थ नै विषै छ, इण बचन थकी संसार में आवै नहीं एहवी निर्वृति पुरी ते सिद्धपुरी में गया, ते भणी तेह सिद्ध नैं मांहरो नमस्कार थाओ। ७६. अथवा 'षिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स्म-अपुनरा वृत्त्या निर्वृतिपुरीमगच्छन्। (वृ०-प०३) ८०. 'षिधु संराद्धौ' इति वचनात् सिद्ध्यन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म । सोरठा ५०. षिध' संराद्धौ जाण, निष्ठित संपूरण अरथ। थया तास पहिछाण, सिद्ध कहीजे तेहने ॥ बा०—षिधु धातु संराद्ध ते फल-निष्पन्न अर्थ नै विर्ष हुई ते भणी सिद्ध कहितां संपूर्ण अर्थ थया ए फल नीपना। ८१. विधत्र धातु शास्त्रह, देणहार शिक्षा तणा। फुन मंगल अर्थेह, न्याय कहूं हिव बिहुं तणो ।। सिद्ध पूर्व भव मांय, शिक्षा ना दायक हुंता। शास्त्र अर्थ सुखदाय, कहिय छै इह कारणे ।। ८१-८३. 'षिधन शास्त्रे माङ्गल्ये च' इतिवचनात् सेधन्ति स्म---शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः। (वृ०-प०३) ८२. श० १, उ० १, ढा० १ ११ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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