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६२.
६३.
६४.
६५.
६६.
नमस्कार नैं जोग जे, फुन सत्कारज जोग । सिद्धि-गमन ने जोगबलि, अर्हत नाम अरोग ||
६६.
अथवा अविद्यमान रह, एकांतरूपज देश | अंत तिको मध्य गिरि गुफा प्रमुख सर्व जाणे || समस्त वस्तु स्तोमगत प्रच्छन्न नहि छे जास एहवा अन्तर भणी, नमस्कार अथवा अविद्यमान रथ, स्पंदन सकल परिग्रह ममत्व ही, फुल वलि अंत विनाश जे
अपां भी
वा०.
-अविद्यमान छँ रथ कहितां स्पंदन, चलण लक्षण जेहनों, उपलक्षण भुत सकल परिग्रह नहीं है जेहने, अन अंत कहितां विनाश उपलक्षण भूत जरादि नहीं है जेहन ए तीर्थकर नीं अपेक्षाय, ते अरथांत भणी, अथवा अंत कहितां तेहना ज्ञानादिक नों विनाश नहीं ते अरथांत भणी, ए सर्व केवली नीं अपेक्षाय ।
६७.
अथवा किण ही वस्तु में, आसक्त क्षीण - राग है ते भणी, नमस्कार
गृद्ध न होय ।
तसुं जोय ।।
वा०
६८.
-अथवा अरहंताणं ते किणही वस्तु नै विष पिण आसक्तिभाव न पां क्षीण राग पणा थकी अगच्छद्भ्यः अप्राप्नुवद्भ्यः ते अरहंत नैं । अथवा अति रागादिना हेतुभूत संवादि । मनोश में अमनोज्ञ ही विषय जिके शब्दादि ॥ तसु संयोग मिले अपि, निज स्वभाव न तजेह | वीतराग छते भणो, नमस्कार तसुं लेह ॥ वा० धरश्यद्भ्यः प्रकृष्ट रागादिहेतुभूत मनोज्ञ-अमनोज, सुंदर-सुंदर विषय शब्दादिक नों संयोग मिल्यै छतै पिण वीतरागपणुं आदि जे निज स्वभाव, हां नहीं तेभ्यः ॥
सुप्रकाश || चलण कुसूत ।
-
ए
उपलक्षणभूत |
जरा प्रमुख नहि जास नमस्कार विधि तास ।
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यतनी
७०. पाठांतर
अरिहंताणं, अप्ट कर्म रूप अरि जाणं । तिण में च्यार कम अरिहणिया, तिण सूं नमस्कार करि थुनिया ॥
१. जिनसे कोई पदार्थ प्रच्छन्न नहीं है और जिनके किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है वे अरहोऽन्तर हैं ।
२. प्राचीन प्रतियों में पकार और यकार का लेखन एक समान मिलता है । प्रस्तुत पद में जो स्पन्दन शब्द है वह अर्थ की दृष्टि से स्यन्दन होना चाहिए। संभव है, जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में स्पन्दन शब्द हो, पर अभयदेवसूरि ने यहां स्यन्दन शब्द मानकर उसकी व्याख्या की है- "अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतः " जिनके पास रथ नहीं है, उपलक्षण से किसी प्रकार का परिग्रह नहीं है, वे अथान्त हैं ।
१० भगवती-जोड
६२. अरिहंत वंदनमंसणाणि अरिति पुत्रसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चति ॥ ( वृ० प० ३) ६३, ६४. अविद्यमानं वा रहः- एकान्तरूपो देशः अन्तश्चमध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतत्वस्याभावेन येषां ते अरोरा अतस्वीर होऽन्तर्भ्यः । ( वृ०० ३) ६५, ६६. अथवा अविद्यमानो रथः- स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणो विनास जरापतक्षणभूतो ( वृ०-०३)
येषां ते अरथान्ता अतस्तेभ्यः ।
६०. 'हं' ति क्वचिदप्यासगिद्भ्यः क्षीरात्।
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(2.02-02)
०६. अथवा यद्यः प्रकृष्टरागाविभूगो तर विषय संपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्व स्वभावमत्यजद्भ्य इत्यर्थः ।
(१०-१० ३)
७०. 'अरिहंताणं' ति पाठान्तरं तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः, आहच---
"अट्ठविपि य कम्मं अरिभूयं होइ सयलजीवाणं । कम्मरहता, अरिहंता तेण युच्चति ॥" ( वृ० प० ३)
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