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५६. रेखा सहित आकाश नै, तथा उद्योत सहीत।
तारानी पर पडिवो हुई, उल का रे पात प्रतीत ।
६०.
दिशि दाह किणही इक दिशि, तल अंधकार तमीस ॥ बलि ऊपरी प्रकाश ह, महानगर रे बलतो तेह सरीस ॥
६१. गाज बीज रज वृष्टि नै, शुक्ल पक्ष रै माय।
पडवादिक जे दिन त्रिहुं, संध्या फूल रे ते यूप कहाय ।।
५६. उक्कापाया इ वा, 'उल्कापाता:' सरेखा सोद्द्योता वा तारकस्येव पाताः ।
(वृ०-५० १६६) ६०. दिसिदाहा इवा,
'दिग्दाहाः' अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्पाः।
(वृ०-प० १६६) ६१. गज्जिया इ वा, विज्जुया इ वा, पंसुवुट्ठी इ वा, जूवे इ
वा, 'जूवय' त्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावद्यैः
सन्ध्याछेदा आब्रियन्ते ते यूपकाः। (वृ०-५० १६६) ६२. जक्खालित्तए त्ति वा, धूमिया इवा, महिया इवा, 'यक्षोद्दीप्तानि' आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि।
(वृ०-प० १६६)
६२. वलै आकाश विष हुवै, व्यंतर
जवखालित्तए तेह छै, धूयर रे
कीधी आग। महिया माग ।।
६३. धूयर
अंतर
सोरठा धूसरवान, स्वेत वर्ण महिया कही। इतलो जाण, धंयर महिका में इहां ।।
६४. *रज ते चिहं दिशि नै विष, ते रजघात कहाय ।
ग्रहण चंद्र सूर्य तणो, ते जाणे रे सोम नामैं महाराय ।।
६५. चंद्र सूर्य नी पाखती, परिवेस कुंडालो भूर।
शशि ऊपर दूजो चन्द्रमा, रवि ऊपर रे दीसै दूजो सूर ।।
इंद्रधनुष गगने हुवै, इंद्रधनुष नां जाण । गगने खंड दीसै घणां, तिणनै कहिय रे उदक-मछ माण ।। बादल बिना ऊतावली, बीजल खिवै तिवार। कपिहसिय इण पाठ नों, अर्थ कीधो रे टीकाकार ।।
६३. धूमिकामहिकयोर्वर्णकृतो विशेषः, तत्र धूमिका–धूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः, महिका त्वापाण्डुरेति ।।
(वृ०-५० १६६) ६४. रयुग्घाए त्ति वा, चंदोवरागा इ वा, सूरोवरागा इवा,
'रउग्घाय' त्ति दिशां रजस्वलत्वानि 'चंदोबरागा सूरो
वरागा' चन्द्रसूर्यग्रहणानि। (व-प० १६६) ६५. चंदपरिवेसा इवा, सूरपरिवेसा इ वा, पडिचंदा इ वा,
पडिसूरा इ वा,
'पडिचंद' त्ति द्वितीयचन्द्राः। (व०प० १६६) ६६. इंदधणू इ वा, उदगमच्छा इवा,
'उदगमच्छ' त्ति इन्द्रधनुःखण्डानि। (वृ०-प० १६६) ६७. कपिहसिया इवा,
'कविहसिय' त्ति अनभ्रे या विद्युत्सहसा तत् कपिहसितम्।
(वृ०-५० १६६) ६८. अन्ये त्वाहुः–कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसद
शस्य विकृतमुखस्य हसनम्। (वृ०-५० १६६) ६६. अमोहा इ वा,
'अमोह' त्ति अमोघा आदित्योदयास्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिताः 'आताम्राः' कृष्णाः श्यामा वा शक
टोद्धिसंस्थिता दण्डा इति। (वृ०-५० १६६) ७०. पाईणवाया इ वा, पईणवाया इवा, जाव संवट्टयवाया इ
वा, 'संवतकवाताः' तृणादिसंवर्तनस्वभावा इति ।
(वृ०-प० १६६)
गगने वानर मुख जिसो, विकृत - मुखे हसंत। कपिहसिय इण पाठ नों, अन्य आचार्य रे अर्थ एम करंत ।। उदय अस्त समय रवि किरण थी,उत्पन्न लाल कृष्ण जोह । गाडा नी जे ओधि नै, संस्थाने रे दंड तेह अमोह ।।
६६.
७०. पुरव दिशि नों वायरो, पश्चिम दिशि नों वाव ।
जाव संवर्तक वायरो, तृणादिक रे संवर्तन स्वभाव ।।
*लय-रावण राय आशा अधिकी अथाय
श०३, उ०७, ढा०६६ ३६६
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