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________________ दृष्टि से विचार किया होता तो स्वयं द्वारा प्रस्तुत प्रश्न का समाधान दूसरा ही होता। तीनों मंगलसूत्र रचनाकालिक नहीं हैं, वे उत्तरकाल में जुड़े हैं, इसीलिए चूणि और मूल टीका में इनकी व्याख्या नहीं मिलती। अभयदेवसूरि ने स्वयं लिखा है-वृत्तिकार ने पूर्व व्याख्यात नमस्कार आदि ग्रन्थ की व्याख्या नहीं की है, उनके सामने इसका कोई कारण रहा है।' अभयदेवसूरि ने उस कारण को स्पष्ट नहीं किया है, किन्तु वह कारण उनके इस वाक्य में स्पष्ट है कि अधिकृत-शास्त्र स्वयं मंगल है, फिर उसके लिए नमस्कार मंगल का कोई प्रयोजन नहीं है। जयाचार्य ने अभयदेवसूरि के मत का अनुवाद मात्र किया है, उसकी कोई समीक्षा नहीं की है।' नमस्कारादिक ताहि, रचना पूर्व कही तिका। मूल वृत्ति रै मांहि, न कही किण कारण थकी।। ब्राह्मीलिपि नमस्कार, मूल वृत्ति में ना कीयो। तास न्याय जे सार, बुद्धिवंत हिये विचारजो।। प्रस्तुत आगम पांचवां अंग है। उपलब्ध ग्यारह अंगों में प्रस्तुत आगम को छोड़कर किसी भी अंग सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार मंगल उपलब्ध नहीं है। सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एव मक्खायं (आयारो १११११) बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा, बंधणं परिजाणिया । (सूयगडो १।१।१) मुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एवमक्खायं । (ठाणं १११) सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं । (समवाओ १११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था । (नायाधम्मकहाओ १६१११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था । (उवासगदसाओ ११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नाम नयरी । पुण्णभद्दे चेइए (अंतगडदसाओ १११) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। (अणुत्तरोबवाइयदसाओ १४१) जंबू ! इणमो अण्हय-संवर-विणिच्छयं पवयणस्स निस्संदं । (पण्हावागरणाई १११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था । (विवागसुयं १।१।१) आचारांग आदि अंगों के प्रारंभ सूत्रों का अध्ययन करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवल प्रस्तुत अंग के प्रारंभ में ही नमस्कार मंगल का विन्यास क्यों? इसका उत्तर पाना कठिन नहीं है। रचनाकाल में प्रस्तुत आगम का प्रारंभ भी "तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था" इस वाक्य से होता था किन्तु लिपिकारों द्वारा लिखित नमस्कार मंगल मूलसूत्र के साथ जुड़ गए और उन्हें मौलिक अंग मान लिया गया। अनुवाद प्रस्तुत ग्रन्थ अनुवाद ग्रन्थ है । जयाचार्य ने मूल पाठ का अनुवाद किया है, साथ-साथ अभयदेवमूरि कृत वृत्ति के मुख्य-मुख्य अंशों का भी अनुवाद किया है। इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ भगवती सूत्र तथा उसकी टीका इन दोनों का अनुवाद ग्रन्थ है। इसमें वृत्ति की व्याख्या बहुत सरलता के साथ प्रस्तुत हुई है। उदाहरण के लिए कुछेक स्थल द्रष्टव्य हैं--- १. मूल पाठ-संक्खित्तविउलतेयलेसे वृत्ति---संक्षिप्ता-शरीरान्तीनत्वेन ह्रस्वतां गता विपुलाविस्तीर्णा अनेक योजनप्रमाणक्षेत्राश्रित १. भगवतीवृत्ति, पत्र ७ अयं र प्राग व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृता न व्याख्यातः कुतोपि कारणादिति । --२. भगवती-जोड़ श० १ उ०१ढा० १।१६१,१६२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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