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वस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धि विशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा।
अनुवाद
बहु योजन क्षेत्र रै मांहि, वस्तु दहन समर्थ कहिवाइ। एहवी विपुल तेजोलेश्या ज्वाला, विशिष्ट तप करि ऊपनी विशाला।।
ते संक्षेपी तनु अंतर कीनी, आ तो ह्रस्व पण करि लीनी। २. मूल पाठ-णिच्चं कुसुमिय-माइय-लवइय-थवइय ।
अनुवाद
फूल्या थका ते रहै सदा, मयुऱ्या ते पुष्प उपन्न । अंकुरवत् पल्लव ऊपना, थवइ पुष्प डोडा जन्न ।। गुल्म लता समूह ऊपनों, गुच्छा ते पत्र समूह ।
वृक्षा नी सम थेणि तिहां, बे-बे तरु एकठा रूह ॥ ३. मूलपाठ-विणमिय, पणमिय
वृत्ति-'विणमिय' त्ति विशेषेण पुष्पफलभरेण नमितमितिकृत्वा विनमितं 'पणमिय' त्ति तेनैव नमयितु मारब्धत्वात् प्रणमितम् ।'
अनुवाद
विशेष फल-फूल करी नम्या, आरंभ्या नमवा तेह ।
भारे करी गाढा नम्या, सोभायमान है जेह ॥" मूल पाठ-णच्चासन्ने णातिदूरे सुस्सूसमाणे
अनुवाद
नहीं अति ही टूकडा, बली नहीं अति दूर।
प्रभु वच सुणवा नीं, इच्छा धरता सनूर ॥ जयाचार्य ने पद्यानुवाद के साथ-साथ टीका के कुछ विशेष अंशों का गद्यानुवाद भी किया है। वह 'वात्तिका' इस शीर्षक के अन्तर्गत उपलब्ध है। समीक्षणीय विषयों के लिए भी उन्होंने गद्यमय वार्तिकाएं लिखी हैं। उदाहरण के लिए 'चलमाणे चलिए' इस सूत्र की वात्तिका द्रष्टव्य है। प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद भी उल्लेखनीय है। उसमें विषय बहुत ही सरल और सरस रूप में चचित हुआ है.
ते पहिले समये, चलवा लागो जेह । तसु चल्युं कहीजै, नय वचने करि एह ।। पट उत्पत्ति काले, प्रथम तंतु प्रवेश । पट उपनो कहीजै, ए छै पट नों देश ॥
१. भगवतीवृत्ति पत्र १२ । २. भगवती-जोड़ श० १उ०१ढा०२६२-६३ ३. , श०१ उ० १ ढा० ६।५३,५४ ४. भगवतीवृत्ति पत्र ३७ ५. भगवती-जोड़ श० १ उ० १ ढाल ६।५५ ६. भगवती-जोड़ श० १० १ढा० ४५ ७. श०१ उ० १ ढाल ३१७० के पश्चात्
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