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इम
पहिले समर्थ, पायुं कर्म तूं अंग ।
प्रसंग ॥
इक
तसुं चल्यु न कहै तो, सर्व अचलन अंत समय में, चल्यूं कहीजै सोय । तो अपर समय ते, निष्फल तसुं मत जोय ॥ जे पहिले समये, चलवा लागो तेह | जे चल्युं कहीजै, उत्तर समय न चलेह ॥
धुर समय चल्युं कह्यां, उदय आवलिका मांय । सर्वं समये चल्युं क्षय, ए धुर प्रश्न कहाय ॥
अनुवाद का अर्थ केवल शब्दान्तर या भाषान्तर ही नहीं होता। उसका अर्थ है मूल में प्रतिपादित विषय का सरस, सरल और सुबोध भाषा में प्रस्तुतीकरण । जयाचार्य ने उक्त अर्थ को सार्थकता दी है। उनके अनुवाद में काव्यात्मकता, लयबद्धता, अर्थाभिव्यक्ति की स्पष्टता ये सारी विशेषताएं उपलब्ध होती हैं। वृत्तिकार ने भगवती की तुलना जयकुंजर से की है। अनुवादकार ने टीका के उस अंश को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। निदर्शन के लिए कुछ गाथाएं पढ़ें---
जयकुंजर गज जिम जयवंतो समय भगवती सखर सोहंतो । पंचम अंग भगवती पवरं द्वितीय नाम आख्यो तसु अवरं ।
सरस
विआपण्णत्ति सारं जयकुंजर गज जिम जयकारं ॥ जय० ॥ ललित मनोहर जे पद केरी, पद्धति रचना पंक्ति सुहेरी । पंडित जन मन रंजन प्यारो, प्राज्ञ रिझावणहार प्रचारो ॥ जय० ॥ अव्यय फुन उपसर्ग निपातं, ए त्रिहुंनोज स्वरूप प्रादिक उपसर्ग चादि निपातं प्रादिक चादिक अव्यय ख्यातं ॥ जय० ॥
सुजातं ।
ललित पदावलि और वाक्य - विन्यास की दृष्टि से यह पूरा प्रकरण (२४वीं गाथा तक) पठनीय है। जयाचार्य ने राजस्थानी भाषा को तत्त्व-दर्शन की एक अमूल्य रत्नराशि प्रदान की है। उन्होंने केवल भगवती सूत्र का ही अनुवाद नहीं किया है, वृत्तिकार द्वारा विहित व्याख्यान अंशों का भी अनुवाद किया है और अपनी ओर से कुछ नए समाधान भी उसमें जोड़े हैं। उदाहरण के लिए वायुकाय की श्वासोच्छ्वास का प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता है। दूसरे शतक के आठवें सूत्र का प्रतिपाद्य है- वायुकाय वायुकाय को श्वासउच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है। सूत्रपाठ और अनुवाद एक साथ पठनीय हैं
मूलपाठ वाउयाए णं भंते वाउयाए चेव आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा ! हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा ।
१. भगवती-जोड़ श० १ ० १ डा० ३।६५-७० २. भगवती-जोड़ श० १ ० १ ढाल १३४ ६ ३. भगवती शतक
४. भगवती जोड़ शतक २ ० १ ढाल ३०|१८
२५
अनुवाद
हे भदन्त ! जे वायुकाय ? छै, वायुकाय नैं जोयो रे । उस्सास अन निःसास लेवे छ,
हंता जिन वच होयो रे ॥ *
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