SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International २२ २. वृत्तिकारयतिथि कही ते लिपि गुणशून्य । नमस्कार तेहने करी ते तो बात जबून्य ॥ ६. द्रव्य निक्षेपो गुण रहित, वंदन योग्य न ताम । समवायंगे देख लो, द्रव्य भाव जिन नाम ॥ ७. भरत एरवत क्षेत्र नां, अनागत जिनराय । चउबीसी नां नाम पिण, वंदे पाठ न ताय ॥ ८. बलि एरवत क्षेत्र नी, चउबीसी वर्तमान । ठांमठांम बंदे कह्यो, ए गुण-सहित ६. वर्तमान चउवीसी ए, भरत क्षेत्र नीं ठांम-ठांम वंदे को, जोवो लोगस्स १०. ते माटे द्रव्यलिपि भणी, द्रव्य सूत्र नैं नमस्कार किम कीजिये, हिये विमासी जोय ॥ सोय । ११. वृत्तिकार द्रव्यलिपि भणी, थाप्यो छँ नमस्कार । सूत्र थकी मिलतो नथी, ते अर्थ अवधार ॥ इसी प्रकार जयाचार्य ने 'नमो सुयस्स' इस पाठ पर भी अपनी समीक्षा प्रस्तुत की है। श्रुत के भी दो प्रकार होते हैं - द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । शब्द की आकृति और उसका उच्चारण ये दोनों द्रव्यश्रुत हैं । शब्द से होने वाला अर्थ-बोध भावश्रुत है । पारिभाषिक शब्दावली में शब्द की आकृति या लिपि को संज्ञाक्षर, उसके उच्चारण को व्यंजनाक्षर और उससे होने वाले अर्थ-बोध को लब्ध्यक्षर कहा जाता है। लिपि और उच्चारण ये दोनों ज्ञान के निमित्त होते हैं। जयाचार्य निमित्तों को नमस्कार करने के पक्ष में नहीं हैं। उनकी दृष्टि में भावलिपि और भावश्रुत ही नमस्करणीय है। उन्होंने लिपि और श्रुत का भेद अपनी दृष्टि से किया है । लिपि शब्द देशश्रुत वाले संयमी का सूचक है और श्रुत शब्द सर्वश्रुत वाले संयमी का सूचक है' सुजान ॥ ताहि । मांहि ॥ नमोश्रुत ते भावश्रुत, चरण युक्त श्रुतवंत । लिपि शब्दे तो देशश्रुत, इहां सर्व श्रुतमंत ॥ इस विषय की वार्तिका में उन्होंने विस्तार से चर्चा की है ।" मंगल-सूत्र प्रस्तुत आगम के प्रारंभ में नमस्कार महामंत्र, ब्राह्मीलिपि को नमस्कार और श्रुत को नमस्कार- - ये तीन मंगल सूत्र मिलते हैं । आगम रचनाकाल में ग्रंथ के प्रारंभ में मंगल - विन्यास करने की पद्धति नहीं थी । यह पद्धति आगम रचना के उत्तर काल में प्रारंभ हुई। अभयदेवसूरि ने स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया हैअधिकृत शास्त्र स्वयं मंगल है फिर मंगल- विन्यास का क्या प्रजोजन ? इससे अनवस्था दोष प्राप्त होगा। इस प्रश्न के उत्तर में टीकाकार ने लिखा है - यह तर्क सही है, फिर भी शिष्य मति को मंगलमय बनाने तथा शिष्टसमय परिपालन के लिए शास्त्र के प्रारंभ में मंगल - विन्यास किया गया है। टीकाकार ने यदि ऐतिहासिक १. भगवती जोड़ श० १ ० १ ० ११६६-१७९ २. नंदी सूत्र, ५६-५ε ३. भगवती जोड़ श० १ ४. भगवती जोड़ श० १ ५. भगवतीवृत्ति पत्र ५ ननु अधिकृत शास्त्रस्यैव मंगलत्वात् कि मंगलेन ? अनवस्थादिदोष प्राप्तेः सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमंगलपरिग्रहार्थं मंगलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय वेत्युक्तमेवेति । ० १ डा० ११२० ० १ डा० १।१२० से आगे की वार्तिका । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy