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________________ Jain Education International २१ इस रचना में उन्होंने अपने आगम-ज्ञान का पूरा उपयोग किया है। पांच सौ एक गीतिकाओं में निबद्ध इस जोड़ का आकार ही विशाल नहीं है, इसका प्रकार भी विशाल है । जयाचार्य ने इसकी रचना में अभयदेवसूरि की वृत्ति, टब्बा, धर्मसिंह मुनि के यंत्र को आधार बनाया था। सबसे अधिक आधार उन्होंने आगम सूत्रों का लिया। प्रस्तुत रचना का अध्ययन तीन दृष्टिकोणों से करना हमें इष्ट है— (१) सहायक ग्रन्थ और भगवती की जोड़ । (२) आगम सूत्र और भगवती की जोड़ । (३) जयाचार्य का स्वतंत्र दृष्टिकोण और भगवती की जोड़। प्रस्तुत रचना को समझने से पूर्व रचनाकार को समझना बहुत जरूरी है । जयाचार्य विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के एक महान् जैन आचार्य हैं। वे तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य और आचार्य भिक्षु के महान् भाष्यकार हैं। वे बहुश्रुत हैं। संस्कृत और प्राकृत के अनेक ग्रन्थों के अध्येता हैं । अध्ययन से भी अधिक उनकी प्रतिभा है। वे अपनी प्रतिभा से नए अर्थ खोजते हैं और अनेक विरोधावभासों का परिहार करते हैं। उनका प्रमुख विषय है-आगम मन्थन और आगम दोहन । आगमों के विषय में मन्थन और दोहन करने वाले विरल आचार्यों में विरलतर हैं जयाचार्य । प्रस्तुत रचना उन जयाचार्य की लेखनी से प्रसूत है। इस कार्य में उन्हें लेखनी और सरस्वती दोनों का उत्तम प्रसाद मिला है। द्रव्यलिपि बन्दनीय नहीं है भगवती सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार की श्रृंखला में 'नमो बंभीए लिबीए' पाठ मिलता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'ब्राह्मी लिपि को नमस्कार' किया है। जयाचार्य ने इसका अर्थ 'ऋषभ को नमस्कार' किया है। भगवान ऋषभ ब्राह्मी लिपि के प्रवर्तक थे एवंभूत नय की दृष्टि से लिपिकर्ता को भी लिपि कहा जा सकता है। इसके समर्थन में आचार्यवर ने प्रस्थक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। प्रस्थक के अर्थ को जानने वाला व्यक्ति प्रस्थक कहलाता है, वैसे ही ब्राह्मी लिपि को जानने वाले व्यक्ति को ब्राह्मी लिपि कहा जा सकता है । जिसके द्वारा प्रस्थक निष्पन्न होता है उसे प्रस्थक कहा जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा ब्राह्मी लिपि प्रवर्तित है उसे ब्राह्मी लिपि कहा जा सकता है। ब्राह्मी लिपि का अभिधात्मक अर्थ ब्राह्मी लिपि हो सकता है किन्तु सर्वत्र केवल अभिधा से ही काम नहीं चलता। किसी भी वाक्य का अर्थ करते समय पौर्वापर्य परंपरा और प्रसंग का ध्यान रखना होता है। लिपि और भाषा ये ज्ञान के साधन हैं, इसलिए इनके दो रूप बन जाते हैं- द्रव्यलिपि और भावलिपि । द्रव्यभाषा और भावभाषा । जयाचार्य की स्थापना है कि द्रव्यलिपि अचेतन है, इसलिए वह नमस्कार के योग्य नहीं है। इस स्थापना का उन्होंने सयुक्तिक समर्थन किया है १. नमो वंभीए लिवीए लिपि कर्त्ता नाभेय । चरण सहित धुर जिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ॥ २. पाथा ना कर्ता भणी, पाथी कहिये एवंभूत नय नै मते अनुयोगद्वार ३. अथवा लिपि ते भावलिपि जे मुनि नैं नमस्कार छँ तेहने एहवं दीसे ४. तीर्थ नाम जिम सूत्र नो, ते संघ ने आधार । तिण सूं संघ ने तीर्थ का तिम भावे लिपि सार ॥ ताहि । मांहि ॥ आधार । For Private & Personal Use Only सार ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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