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________________ जाव अभिषेक स्थापना, राजधानी तिमहीज । जावत् पंक्ती ते चिउं, प्रासाद नी जिमहीज ।। शक सुरेंद्र सुरराय नां, जम महानृप नी सेव । आज्ञा वच निर्देश में, रहै एतला देव ।। जमकाइया जम जाति नां, जम परिवार सुसाधि । जम - देवत - काइया, जम-सामानिक आदि। प्रेतकाइया - व्यंतरा, प्रेत - देवतकाय। प्रेतसत्क जे सुर तणां, संबंधी कहिवाय ।। ५. जाव अभिसेओ। रायहाणी तहेव जाब पासायपंतीओ। (श० ३६२५६) ६. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठति, तं जहा७. जमकाइया इवा, जमदेवयकाइया इवा, असुर देव देवी बलि, कंदर्प क्रीडाकार । नरकपाल सेवक सुरा, अन्य बलि तथा प्रकार ।। ते सह भक्ता जमपक्षी, वल्लभ भार्या जेम । जम नी आज्ञा सेव बच निर्देशे रहै प्रेम ।। ८. पेतकाइया इ वा पेतदेवयकाइया इ वा, 'पेयकाइय' त्ति 'प्रेतकायिकाः' व्यन्तर विशेषाः 'पेयदेवतकाइय' त्ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनः । (वृ०-५० १६८) ९. असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा, निरयपाला, अभियोगा--जे यावण्णे तहप्पगारा १०. सब्वे ते तब्भत्तिगा, तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरष्णो जमस्स महारण्णो आणा-उववायवयण-निद्देसे चिट्ठति। (श० ३।२५७) *निसणे गोयमा ! जम महाराजा स्यूं नहीं छाना। बलि जमराय नां जमकायिका थकी अछाना ।। (ध्रुपदं) जंबुद्वीप नां मेरु-गिरि थी, दक्षिण दिशि रै मांह्यो। एह ऊपजै ते सह जाणे, जम नामैं महारायो।। डिबा कहितां विघन ऊपजै, डमर ते इक राजेराजकुमारादिक नों कीधो, उपद्रव अधिक अकाजे॥ १२. १३. कलह वचन नी राडि कहीज, बोला अर्थ विचारा। अव्यक्त अक्षर नी ध्वनि-समूहज, मच्छर परस्पर खारा ।। चक्रादि-व्यूह रहित महायुद्ध, व्यूह रच महासंग्रामो। महाशस्त्र खड्गादि पडै बलि, महापुरुष क्षय आमो।। ११. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणे णं जाई इमाई समुप्पज्जति, तं जहा१२. डिबा इवा, डमरा इ वा, डिम्बा-विघ्नाः 'डमर' ति एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः। (वृ०-प० १९८) १३. कलहा इ वा, बोला इ वा, खारा इवा, 'कलह' ति वचनराटयः 'बोल' त्ति अव्यक्ताक्षरध्वनि समूहाः 'खार' त्ति परम्स्परमत्सराः। (वृ०-प० १६८) १४. महाजुद्धा इवा, महासंगामा इ वा, महासत्थनिवडणा इवा, महापुरिसनिवडणा इ वा, 'महायुद्ध' ति महायुद्धानि व्यवस्थाविहीनमहारणा: 'महासंगाम' त्ति सव्यवस्थचकादिब्यहरचनोपेतमहारणाः महाशस्त्रनिपातनादयस्तु त्रयो महायुद्धादिकार्यभूताः । (वृ०-५० १६८) १५. महारहिरणिवडणा इवा, दुद्भूया इ वा, 'दुब्भूय' ति दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वाद् भूताः सत्त्वाः यूकामत्कुणोन्दुरतिड्डप्रभृतयो दुर्भूता ईतय इत्यर्थः। (वृ०-५० १६८) १६. कुलरोगा इवा, गामरोगा इ वा, मंडल रोगा इ वा, नगररोगा इवा, सीसवेयणा इवा, अच्छिवेयणा इवा, कण्णवेयणा इवा, नहवेयणा इ वा, दंतवेयणा इवा, १५. घणां रुधिर-लोही न पडिवू, धान्य मनुष्य प्रमुख नै। उपद्रव हेतू जू नै माकण, उंदर तीड उप्पनै ।। १६. कुल अरु ग्रामै रोग ऊपजै, देश नगर में रोगा। शिर चक्ष कर्ण दंत नख वेदन, उपजै अधिकी अजोगा। *लय-हठीला कानजी ! छल्ला म्हैं नहीं छोडूं, ४०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Person For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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