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________________ भागो मध्यमा स्थितिर्भवति, तिर्यसूत्रे यदुक्तं 'पलिओवमस्स असंखेज्जइभाग' ति तन्मिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्येति। (वृ०-५०५२) जघन्य स्थिति तीजै पाथ, दश लक्ष वर्प प्रमाण । उत्कृष्टी तिहां स्थिति कही, पूरव कोड़ पिछाण ।। जघन्य स्थिति चौथे पाथडे, पूरव कोड़ प्रमाण । उत्कृष्ट स्थिति सागर तणों, दशमो भाग पहिछाण ।। इण न्याय चोथै पाथड़े, पल्य नों भाग असंख्यात । मध्यम स्थिति में अपज, वत्ति माहै ए बात ।। तिर्यच मनुष्य माहै कह्यो, पल्य नों भाग असंख्यात । ते जगलिया आश्री जाणजो, असण्णी मर नै थात ।। असण्णी आयू बांध देव नों, ते भवनपती व्यंतर थाय । जोतिषी में वेमानिक में, असण्णी न ऊपज आय ।। हे प्रभु ! असण्णी रै आउखो, चिउं गति नों बंधाय । कुण-कुण अल्प बहुतपणं, तुल्य विशेषाधिक थाय?।। २१. जिन कहै-सर्व थोड़ो सही, असग्णी देवायू बांधत । तेह थी मनुष्य नों आउखो, संखेज्ज गुणो कहत ।। तेह थी तियन नो आउखो, असंखेज्जगुणो जाण । तेह थी नरक नों आउखो, असंखगुणो पहिछाण ।। वा०--इहां असण्णि पंचेंद्रिय तिर्यच मरी च्यारू गति में ऊपजै तेहना आउखा नीं अल्पबहुत्व में सर्व थोड़ो देवायु जे चउवीसमै शतके द्वितीय उद्देशे टीका में कह्यो। असण्णि तिर्यच कोड पूर्व आयुवंत मरी असुर में ऊपजै । ते उत्कृष्ट थी कोड पूर्व नों आयुखो पावै, उत्कृष्ट निज आउखा थी अधिक न पांम। ते माट इहां सर्व थी थोडो देव आयु कह्यो। तेहथी मनुष्यायु संख्यातगुणो । मनुष्य युगलियो हुवै ते माटै । तेह थी तियंच आयु असंख्यात गुणो, तिथंच युगलियो हुवै ते माट। तेहथी नरकायु असंख्यातगुणो, रत्नप्रभा नैं चौथे पाथडै मध्यम आउखै उपज ते माट। जिन वच सुण गोयम कहै, सेवं भते सेवं भंत । आप कह्यो तिमहीज छै, द्विर्वच आदरवत ।। बारे नौ अंक इहां कह्यो, प्रथम अंक शतक एस। दुजो अंक उदेशो अछ, शत प्रथम नों दूजो उद्देश ।। २५. दशमी हाल कही भली, कृष्ण कात्तिक एकादशी। भिवख भारीमाल परायथी, 'जय-जश'संपति सरसी।। प्रथमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ।।१।२।। २०-२२. एयरस णं भंते ! नरइयअसणिआउयस्स, तिरिक्ख जोणियअसण्णिआउयस्स, मणुस्सअसण्णिआउयस्स, देवअसष्णिआउयस्स कयरे कयरेहितो अप्पे वा ? बहुए वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, मणुस्सअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, तिरिक्ख जोणियअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइयअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे। (श० ११११६) २३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! (श० ११११७) १. अंगसुत्ताणि भाग २, श०१।११६ में देव असन्नी-आयुष्य से मनुष्य असन्नी-आयुष्य असंख्येयगुण अधिक लिया है। जयाचार्य ने जोड़ में संख्येयगुण अधिक कहा है। यह विसंगति प्रतीत होती है, पर अंगसुत्ताणि सूत्र के पाठान्तर में अ० क० ब० और म० प्रतियों में संखेज्जगुण लिया है । संभव है, जयाचार्य के पास इन्हीं प्रतियों में से कोई प्रति रही हो, इसलिए आपने संख्येय गुण का उल्लेख किया है। १०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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