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________________ ढाल : ११ दूहा द्वितीय उदेशक अंत में, आय नो अधिकार । तसं बंध मोह छतै हुवे, हिव मोह नों विस्तार ।। १. द्वितीयोद्देशकान्तिमसूत्रेष्वायुविशेषो निरूपितः, स च मोहदोषे सति भवतीत्यतो मोहनीयविशेष निरूपयन् आह (वृत-प० ५२) २. जीवाण भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हे भदंत ! बहु जीव रा, कंखा - मोहणी कर्म । बांध्यो ते बहु काल नों, प्रथम प्रश्न ए मर्म ।। चिरकाल रहै करिबैज करि, कंक्ष कर्म निपजाय । चय उपचय नों पिण इमज, प्रथम प्रश्न कहिवाय ।। अन्य मत बंछा कक्ष ते, उपलक्षण थी जाण । संकादिक कहिवी इहां, मिथ्या-मोह पिछाण ।। ४. कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वालचास्य शङ्कादिपरिग्रहः, ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयं, मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः। (वृ०-५०५२) वा.-मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशिष्यते। (व०-५० ५२) ५. हंता कडे। (श ११११८) ६-६. से भंते ! कि १. देसेणं देसे कडे? २. देसेणं सब्वे कडे? ३. सब्वेणं देसे कडे ? ४. सव्वेणं सब्बे कडे? गोयमा ! १. नो देसेणं देसे कडे २. नो देसेणं सब्वे कडे ३. नो सव्वेणं देसे कडे ४. सव्वेणं सधे कडे। (श० ११११६) वा०--जीव नै मोहित करै तेहनै मोहनीय कहिये। इहां निकेवल मोहनीय कर्म किम नवि कह्यो ?कंखा शब्द किम जोड्यो? मोहनी नां दो भेद चारित्र मोहनीय, दर्शन मोहनीय ते इहां चारित्र मोहनी नों ग्रहण नहीं करवू ते माटै कंखा मोहनीय कह्यो। जिन भाखै हंता कडै हां कीधो ए कर्म । हिव गोयम च उभंग करि, पूछ एहनों मर्म ।। *हो जी प्रभु ! देव जिनेंद्र दयाल प्रते, गोयम भण रे लो ।(ध्रुपदं) ६. हो जी प्रभु ! जीव तणे इक देश, अंश तेणे करी रे लो। हो जी प्रभ! कंखा मोह नों देश, अंश कीधं धरी रे लो।। ७. हो जी प्रभ ! तथा जीव नै देश, अंश करि जाणिय। हो जी प्रभ! कंखा मोहनी सर्व, करयं इम माणियै ।। ८. हो जी प्रभ! सर्व जीव करि देश, कंख - मोह कृत इसो। हो जी प्रभ! सर्व जीव करि सर्व, कंख - मोह कृत जिसो।। है. हां जी शिप्य ! जिन कहै धुर विहं भंग, तिकै मिलता नहीं। हां जी शिप्य! सर्व जीव करि सर्व, कंख - मोह कृत सही ।। १० हा जी शिप्य ! इक समै बंधवा योग्य, कर्म जे दल अछ। हां जी शिष्य ! सर्व जीव प्रदेश तणो, व्यापार छै।। ११. हां जी शिष्य ! अल्प कर्म जो होय, तो पिण इम सांधिय। हां जी शिप्य ! चेतन ना परदेश, सर्व थी बांधिये ।। १२ हो जी प्रभु ! नारक कखा-मोह, कर्म कीधो जरे। हां जी शिष्य ! हता कोधू जाव, सब्वेण सब्वे कडे ।। १३. हां जी शिप्य ! जाब विमाणिक, दंडक चवीसै इसो। हो जी प्रभ ! प्रश्न हिवै विणकाल तणो कहिये तिसो।। *लय-अंबाजी सझ सौल शृगार के दर्शण दीजिय रे। १०. तदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां (वृ०-प० ५२) व्यापारः। १२. नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे? हंता कडे जाव सब्वेणं। (श० १११२०, १२१) १३. एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियब्यो। (श० १।१२२) श०१, उ०३, ढा० ११ १०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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