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________________ १४. हो जी प्रभु जीव ! काले मोह कर्म, अतीत हां जी शिष्य ! हंता कृत इम जाय, विमाणिक लग १५. हो जी प्रभु! जीव कंसा-मोह वर्तमान काल हां जी शिष्य ! हंत कर इम जाव, विमानिक १६. हो जी प्रभु! जीव कंखा-मोह करसी काल हंता करसी एम, जाव एवं चिए पाठ चय हां जी शिष्य! करे 1 उच्चरै ॥ आगामिकं । वैमानिके ॥ सामान्य थी । चिण्या चिण नै चिणसी, ए त्रिहुं काल थी । एवं उपचिए उपचय, ए सामान्य थी। १७. हां की शिष्य हां जी शिष्य ! १८. हो जी शिष्य हां तेहवो ॥ हां जी शिष्य ! उपचिण्या उपचिर्ण उपचिणसी, विहं काल थी । ११. हो जी हा हां वृत्तिकार विस्तार कियो, छे एहवो । हां जी इहां चय - उपचय नो अर्थ, कियो छै २०. हां जी चय प्रदेश ने अनुभागादिकनी वृद्धि हां जी कांइ उपचय तेहिज, वार-वार पुष्टी २१. हां जी कांइ अन्य आचार्य, चय उपचय अर्थ इम कहै । हां जी कां चय कर्म पुद्गल उपादान — ग्रहण मात्र है ॥ २२. हां जी कांइ उपचय चयनों काल, आवाधा मुच्चवै । हां जी कांइ वेदन अर्थ निषेक, भणी ते उच्चवं ॥ २३. हांजी कांइ ते निषेक इम जाण, १०४ भगवती जोड़ स्थिति नै छै प्रथम दल भोगवै । हां जी कांड बहुत कर्म दल प्रते, भोगवं २४. हां जी कोई जे समय विशेष हीन हां जी कांइ तीज समय विशेष होन २५. हां जी कांइ इम यावत् उत्कृष्ट, स्थिति कर्म दलिक नै । दल अनुभवे ॥ इमज नैं ॥ हां जी कांद्र तावत् विशेष हीन, अनुभव २६. हां जी इम उदय न आव्या कर्म, तिकै J सुभ हां जी कांइ गया काल रे मांहि, उदीर्या २७. ही जी को वर्तमान ए कर्म, उदीरे Jain Education International खै हां जी कांइ उदीरस्यै वलि कर्म, अनागत २८. हां जी इम वेद्या वेदे वेदसी, काल हां जी कांइ निज्ज निज्जरे निज्जरसी, २६. हां जी कांइ जीव अने चउवीस, दंडक हां जी कांइ ए सगलाइ बोल, समय ३०. हां जी कड चित उपचित ना भेद, चउ-चउ हां जी कांइ उदीरि वेदि निज्जिण्णा, त्रिहुं त्रिहुं कियो ? लियो । चाव भाव रै त्रिहुं कर्म दल ने विधि करें। परं ॥ विषै । तिम्रै ॥ सूं । सूं ॥ सही । मही ॥ मही । सही ॥ ऊपरं । ऊचरै ॥ आणिये। जाणिये ।। १४. जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्म करिसु ? हंता करि ( श० १११२३) एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियव्वो, जाव वेमाणियाणं । (STO PPPRX) १५. एवं करेंति । एत्थ वि दंडओ जाव वैमाणियाणं । (πTO EIERE) १६. एवं करिस्संति । एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं । (TO (1880) १७, १८. एवं चिए, चिणिसु, चिणति, त्रिणिस्संति । उवचिए, उवचिणिसु, उवचिणंति, उवचिणिस्संति । ( ० १९२०) २०-२२. नवरं चय:- - प्रदेशानुभागादेर्वर्द्धनम् उपचयस्तदेव पौनःपुन्येन अन्ये त्वाहुः चयनं कर्म्म पुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं तु चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा वेदनार्थं निषेकः । ( वृ० प० ५३) २३-२५. स चैवम् प्रथमस्थिती बहुत कर्मदनिक निषियति ततो द्वितीयाया विशेषन एवं पाव दुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति । ( वृ० प० ५३ ) २६, २७. उदीरेंसु, उदीरेंति, उदीरिस्संति । २८. वेदेंसु, वेदेति वेदिस्संति, निज्जरेंसु, निज्जरेंति निज्जरिस्संति । (श० ११२५ ) ३०. कड- चिय उवचिय, उदीरिया वेदिया य निज्जिण्णा । आदितिए मेदातियभेदा पण्डिमा निशि ।। ( श० १११२८ संगहणी-गाहा ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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