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________________ ११. हे प्रभु ! सगली दिशि विष जी, सर्व आतप करी तेथ । फर्शण काल समय विर्ष जी, जितो क्षेत्र फर्शत ।। फशण लागो तेहनै जो, फर्यो कहिजै स्वाम? जिन कहै हता गोयमा जी, इम सह बात तमाम ।। १३. ते प्रभु ! स्यूं लागो फर्शवा जी?, फर्श क्षेत्र उदंत । जावत् नियमा षट् दिशै जी, फर्शण लागो ते फर्शत ।। १४. हे प्रभ ! लोक ना अंत नै जी, अलोकांत फर्शत। अलोकांत ने लोकांत फर्श ? हंता जिन भाखंत ।। १५ ते प्रभु ! स्यूं लागो फर्शवा जी, फौं छै जिन राय ? जावत् नियमा पट् दिशे जो, फर्शण लागो ते फर्शाय ।। १६. द्वीप तणां छेहड़ा प्रते जी, 'फर्श सागर - अंत। सागर-अंत ने द्वीपांत फर्श ? हंता जिन-वच तत ।। ११, १२. से नूणं भंते ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकाल समयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ तावतियं फुसमाणे पुढे त्ति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! सव्वंति जाव वत्तब्वं सिया। (श० ११२६८) १३. तं भंते ! कि पुढें फुसइ? अमुट्ठ फुसइ? गोयमा ! पुढें फुसइ, नो अपुढें जाव नियमा छद्दिसि फुसइ। (श० ११२६६) १४. लोयते भंते ! अलोयंतं फूसइ? अलोयंते वि लोयंतं फुसइ? हंता गोयमा ! लोयंते अलोयतं फुसइ, अलोयते वि लोयंत फुसइ। (श० ११२७०) १५. तं भंते ! कि पुटुं फुसइ ? अपुढें फुसइ? गोयमा ! पुढें फुसइ, नो अपुळं जाव नियमा छद्दिसि फुसइ। (श० १।२७१) १६. दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ? सागरते वि दीवंतं फुसइ? हंता गोयमा ! दीवंते सागरंतं फुसइ, सागरते वि दीवंतं फुसइ जाव नियमा छदिसि फुसइ। (श० ११२७२) १७. योजनसहस्रावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, तत श्चोपरितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रप्रदेशानाश्रित्य ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयस्य स्पर्शना वाच्या, पूर्वादिदिशां तु प्रतीतैव, समन्ततस्तेषामवस्थानात्। (वृ०-५०७६) १८. एवं एएणं अभिलावेणं उदयंते पोयंत छिदंते दुसतं छायंते आयवंतं जाव नियमा छद्दिसि फुसइ। (श०२७३-२७५) १६. 'छायंते आयवंत' ति इह छायाभेदेन षड्दिम्भावनैवम् आतपे व्योमवर्तिपक्षिप्रभृति द्रव्यस्य या छाया तदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षु स्पृशति तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशात्तद्रव्यं यावदुच्छ्योऽस्ति, ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशति। (वृ०-५०७६) २०. स्पर्शनाऽधिकारादेव च प्राणातिपातादिपापस्थानप्रभव कर्मस्पर्शनामधिकृत्याह-- (वृ०-प० ७६) २१. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया कज्जइ? हंता अत्थि। (श० ११२७६) 'किरिया कज्जई' त्ति, क्रियत इति क्रिया---कर्म सा क्रियते । (वृ०-५०८०) १७. यावत् नियमा पट् दिर्श जी, हेठो जोजन हजार । द्वीप समृद्र अछै सही, फर्श ऊर्द्ध अधो दिशि च्यार ।। १८. इण प्रकार करि जाणिय जी, उदक नो अंत नावंत। छिद्र ना अत नै वस्त्रांत फर्की, छायांत नै धूप - अंत ।। १६. जावन् नियमा पट् दिश जी, गगनपंखी प्रमुख छाय। आतप बीच रही थकी जी, इम पट दिशि फर्शाय ।। स्पर्शन ना अधिकार थी जी, प्राणातिपातादि पापस्थान । प्रभव कर्म नी फर्शणा नों हिव प्रश्न-विधान ।। अस्थि भते ! जीवा भणी जी, प्राणातिपात नी जोय। किरिया-कर्म हुवै सही जी? जिन कहै हता सोय ।। * लय-रात रा अमला में होको गहिरो गूंजे हो लाल श०१, उ०६. डा० १७ १४३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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