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________________ ७.हंता जिन कहै समर्थ होवै, किण अर्थे प्रभुजी ! कहिवाय। ७. हंता पभू । (श० ३।११७) जिन कहै पुदगल न्हाख्यो थको जे, पूर्व शीघ्र हवै गति ताय॥ से केणठेणं जाव गेण्हित्तए ? गोयमा ! पोग्गले णं खित्ते समाणे ८. पहिला उतावली चाली नैं पुद्गल, हलवै हलवे पछै मंद-गति हाले । ८. पुवामेव सिग्धगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, महद्धिक सर पहिला नै पछै पिण, ते शीघ्र अत्यंत शीघ्र गति चालै ।। देवे णं महिड्ढीए जाव महाणुभागे पुवि पि पच्छा वि सीहे सीहगति चेव है. त्वरित त्वरित-गति मन उत्सक ते, शीघ्र त्वरित ते एकार्थ सोय। ६. तरिए तूरियगती चेव । से तेणठेणं जाव पभ् गेण्डित्तए। तिण अर्थे करि गोयम ! यावत्, समर्थ पुद्गल ग्रहण सुजोय ।। (श० ३।११८) 'त्वरितगतिः' मानसौत्सुक्यप्रवर्तितवेगवद्गतिरिति। (वृ०-५० १७८) १०. जो प्रभु ! देवेंद्र महद्धिक यावत्, पुद्गल ग्रहण करै पूठे जाय। १०. जइ णं भंते ! देवे महिड्ढीए जाव पभू तमेव अणुपरितो प्रभ! शक स्व-हस्त करी ने, चमर ग्रहण किम समर्थ नांय ? यट्टित्ता णं गेण्हित्तए, कम्हा णं भंते ! सक्केणं देविदेणं देबरण्णा चमरे असुरिदे असुर राया नो संचाइए साहित्थं गेण्हित्तए? ११. जिन कहै असरनों अधोगति-विषय, शीघ्र-शीघ्र त्वरित-त्वरित विशख। ११. गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए सीहे. ऊर्ध्वगति - विषय अल्प-अल्प छै, मंद-मंद ते अतिमंद पेख ।। सीहे चेव तुरिए-तुरिए चेव, उड्ढं गइविसए अप्पे-अप्पे चेव मंद-मंदे चेव। १२. वैमाणिकनी ऊर्ध्वगति-विषय, शीघ्र-शीघ्र त्वरित-त्वरित विशेख। १२. वेमाणियाणं देवाणं उड्ढे गइविसए सीहे-सीहे चेव। अधोगति-विषय अल्प-अल्प छै, मंद-मंद ते अधिक मंद पेख ।। तुरिए-तुरिए चेव, अहे गइविसए अप्पे-अप्पे चेव मंद-मंदे चेव। १३. शक्र देवद्र ते एक समय में, जेतलो खेव ऊंचो जाय चीन। १३. जावतियं खेतं सक्के देविदे देवराया उडट उप्पय पक्के तेतलं क्षेत्र वन बे समये, जे वज बे समय ते चमर ने तीन । समएणं, तं वज्जे दोहिं, जं वज्जे दोहिं तं चमरे तिहि । १४. सर्व थोडो काल लागै शक नै, ऊर्ध्व-लोक जातां कालखंड। १४. सव्वत्थोवे सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो उड्ढलोयकंडए, अति शीघ्रपणां थकी कालखंड तसं, समय रूप कहियै छै सुमंड। 'सर्वस्तोक' स्वल्पं शक्रस्य ऊर्वलोकगमने खण्डक कालखण्डं ऊर्ध्वलोककण्डक ऊर्ध्वलोकगमनेऽतिशीघ्रत्वात्तस्य। (वृ०-५० १७८) १५. तेहथी अधोलोक जाता थकां जे, संख्यातगुणो दुगुणो कालखंड। १५. अहेलोयकंडए संखेज्जगुणे। अधोलोक गमन विष शक नँ, मंद-गति छ तेहथी ए मंड ।। अधोलोकगमने कण्डक कालखण्डमधोलोककण्डक संख्यात गुण, ऊर्ध्वलोककण्डकापेक्षया द्विगुणमित्यर्थः अधोलोकगमने शक्रस्य मंदगतित्वात्। (व-प० १७८) १६. चमर असुरेंद्र ते एक समय में, जेतलो खेत्र नीचो जावै चीन। १६. जावतियं खेत्त चमरे असुरिदे असुरराया अहे ओवयइ एक्केणं समएण, तं सक्के दोहि, जं सक्के दोहि, तं वज्जे ते क्षेत्र शक वे समय में जावे, जे शक्र वे समय ते वज्र ने तीन ॥ तीहि। १७. सर्व थोडो काल लागै चमर नैं, अधोलोक जातां कालखंड। १७. सव्वत्थोवे चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो अहेलोय अति शीघ्रपणां थकी कालखंड ते, समय रूप कहिये छै समंड।। कंडए, तेथी ऊर्वलोक जातां चमर ने, संख्यातगुणो कालखड साय। १८. उढलोयकंडए संखेज्जगणे अधोलोक कालखंड नी अपेक्षा, ऊर्ध्वलोक जातां दुगुणो काल होय ।। १६. इम निश्चै गोयम शक देविंद्र ते, चमर असुरिंद्र असुरराजा ने। १६. एवं खलु गोयमा ! सक्केणं देविदेणं देवरगणा चमरे पोते नैं हाथे करी नै प्रत्यक्ष, समर्थ नहीं छै तास गृहिवा नै ।। अरिदे असुरराया नो संचाइए साहस्थिं गेण्हित्तए। (श० ३।११६) श० ३, उ०२, ढा० ६१ ३५७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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