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________________ ढाल : ३४ दूहा हे खंधक ! जे सावत्थि में, पिंगल नाम निग्रंथ । वैसालिक थावक तुझे, प्रश्न पूछया धर खंत ।। मागध ! लोक सअंत स्यू, तथा अनंत कहाय ? इम तिमहिज जावत् जिहां, मुझ पै तिहां झट आय ।। १, २. खंदयाति ! समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायण सगोत्तं एवं वयासी-से नणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए-मागहा ! कि सते लोए? अणते लोए? एवं तं चेव जाब जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए। ३. से नूणं खंदया ! अढे समठे? हंता अस्थि । (श० २।४४) ४, ५. जे वि य ते खंदया ! अयमेयारूबे अज्झस्थिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-कि सअंते लोए ? अणते लोए?–तस्स वि य णं अयमठे-एवं खलु मए खंदया ! चउबिहे लोए पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेतओ, कालओ, भावओ। खंधक ! अर्थ समर्थ ए? हंता अस्थि स्वाम! अर्थ अनुपम तेहनों, भाखै जिन गुण-धाम ।। जे पिण खंधक तुझ इसो, आत्म विषै ए जन्न। चितित प्राथित मन रह्य, विचार जे उत्पन्न ।। *वदै वर वीर विमल वानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी । (ध्रुपदं) खंधक ते चित्यू मन माह्यो, वलि मनमांहि विचार ऊपनों लोक सांत ताह्यो ? तथा स्यूं लोक अनंत कहिये, तेहन पिण ए अर्थ एम निश्चै खंधक लहिये । लोक ए चउविध मैं भाख्यो, द्रव्य, खेत्र नै काल, भाव थी जओ जओ आख्यो, __ तास हिव भेद कहूं छाणी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।। द्रव्य थी लोक एक जाणी, तिण कारण ए अंत-सहित छै न्याय हिय आणी, खेत्र थी लोक इतो बहुलो, असंखेज्ज कोडाकोडी जोजन लांबो पहलो। परिधि हिव लोक तणी सुणिय, असंख्यात कोडा-कोडी जे जोजन नी गिणिय, तिको पिण अंत सहित ठानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।। लोक ए काल थकी जोई, कदापि न हुवो, नहि है, न हुसी इम नहि छै कोई, हूओ ए काल अतीत मही, वर्तमान काले पिण छै ए हुसै अनागत ही। ६. दवओणं एगे लोए सअंते। खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अत्थि पुण से अंते। ७. कालओ णं लोए न कयाइ न आसी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भविस य, भवति य, भविस्सइ य-धुवे नियए सासए अक्खए अब्बए अवट्ठिए निच्चे, नत्थि पुण से अंते। ___ *लय—सुगुरु की सीख हिय धरना रे २१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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