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अचल भावे करि ध्रुव एही, एक स्वरूपपणां थी लोकज नियत का जेही,
सास्वतो खिण-खिण सद्भावै, अक्षय कहितां अविनाशी छै नास नहीं थावै ।
अवस्थित कहितां तसं कहियै, अनंत पर्यायपणे करिने छै नित्य एम लहिये,
तास फुन अंत नहीं जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।।
८. ध्रुवोऽचलत्वात् स चानियतरूपोऽपि स्यादत आह
(वृ०-प० ११९) ६. नियत एकस्वरूपत्वात् । (वृ०-प० ११६)
गीतक-छन्द ध्रुव शब्द अचलपणां थकी, ए लोक नै ध्रव दाखियै । फून तेह अनियत रूप पिण ह, इह थकी हिव आखियै ।। कह्य' णितए लोक नै, तम अर्थ नियत पिछाणिये। इक ही स्वरूपपणां थकी, ए नियतरूपज जाणिय ।। फून नियत तेह कदाचि पिणहू, इह थकी आगल कहै। सासए खिण-खिण तणा सद्भाव थी शास्वत रहै ।। फून सास्वतो ते नियत काल अपेक्षया पिण हूं तिको। इह कारणे हिव अक्खए, अविनाशि थी अक्षय जिको ।। फुन तेह अक्षय द्रव्य करि पिण ह्रतिको स्यूं लीजिये । इह कारणे हिव आगलै, अवट्ठिए पाठ अहीजिये ।। अवट्टिए रव नों अर्थ जे पर्याय अनंतपणे करी। अवस्थितपणा थी लोक नै, फून अवस्थित आख्यू फिरी ।।
१०. नियतरूपः कादाचित्कोऽपि स्यादत आह-शाश्वत: प्रतिक्षणं सद्भावात्।
(वृ०-१० ११६) ११. स च नियतकालापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-अक्षयोऽविनाशित्वात् ।
(वृ०-५० ११६) १२. अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह- (वृ०-प० ११६)
१२.
१३. अवस्थितः पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात ।
(वृ००प०११६)
१४.
१४. किमुक्तं भवति ? नित्य इति।
(वृ०-५० ११६)
१५.
सोरठा निष्कर्ष रूप में जोय, निच्चे पाठ छै आगलै । लोक नित्य अवलोय, अंत रहित इम काल थी।
*भाव थी लोक तणु निरj, वर्ण गंध रस फर्श तणां ए पजब अनंत भणु,
बलि संठाण अनंत पजवा, गुरु-लघु बादर खंध तणां पिण पजव अनंत भवा।
अगुरुलघु पजव अनंता ही, तसं फून अंत नहीं हे खंधक ! इम चउविध थाई,
वर्दै प्रभुजी पूरणज्ञानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।।
१५. भावओणं लोए अणंता वण्णपज्जवा, अणंता गंधपज्जवा,
अणंता रसपज्जवा, अणंता फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते।
*लय-सुगुरु की सीख हिय धरना रे
श०२, उ०१, ढा०३४ २११
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