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तिण कारण ए अंत-सहित
एतले द्रव्य थकी भाली, अंत सहित ए लोक कहीजे निमल न्याय न्हाली, क्षेत्र की अंत सहित एही. काल की एलोक असे अंत-रहित जेही। भाव वी अंत-रहित कहिये, वर्णादिक नां जय अनंता एह इहां गहियें, प्रथम प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ जिके पिकतं तेमी, जाव सांत के अनंत जीव तास अर्थ एमो जीव चविध करि मैं भाग्यो, द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव थी जूओ जूओ आख्यो । द्रव्य थी एह जीव एको, परम न्याय पेखो हिवै सुण आगल वर वाणी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ क्षेत्र थी जीव तो कहिये, असंख्यात प्रदेश अछे से जिन यच संलहिये। तिके आकाश तणां जेही, असंख्यात प्रदेश ओगाह्या अंत-सहित एही। काल थी जीव एह ज्याही, कदाचित् नहि हुओ इसी विध कहियो तमु नाही जाव नित्य पूर्व पाठ भणवा, तेह तणुं फुन अंत नहीं छं थिर चित सूं थुणवा । सुधा जिन वाणी सुखदानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ भाव थी जीव प्रभू भा ज्ञान तणां पर्याय अनंता इस दर्शण आखे । अनंता चरित पजवधारी, गुरुलघु नां पिण पजव अनंता ए तनु सहचारी | अगुरुलघु पजव अनंता ही, तेह तणं फुन अंत नहीं है जिन वच सुखदाई, अदल वर न्याय हियै जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥
औदारिकादि वृत्ति मध्ये इम
२१२ भगवती-जोड़
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सोरठा
जाण, ते आधी मुरुलघु कथा। वाण, जीव अरूपी ते भणी ॥
१६. सेत्तं खंदगा ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालओ लोए अणते, भावओ लोए अणते ।
(श० २२४५)
१७. जे वि य ते खंदया ! जाव कि सअंते जीवे ? अणते जीवे ?
तस्स वि य णं अयमट्ठे एवं खलु मए खंदया ! चउविहे जीवे पण्णत्ते, तं जहा- दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ ।
दव्व णं एगे जीवे सअंते ।
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१०. जीव अपएसए, अंग अत्थि पुण अंते । कालओ गं जीवे न कयाइ न आसी जाव निच्चे, नत्थि पुण से अंते ।
१६. भावओ गं जीवे अणंता नाणपज्जवा, अनंता दंसणपज्जवा, अनंता चरितपज्जवा, अनंता गरुयल हुय पज्जवा, अणता अगरुयल हुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते ।
२०. अनन्ता गुरुलघुपर्याया औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य ।
( वृ० प० ११९ )
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