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________________ ६६. अधम्मत्थिकाए, नो अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्म त्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए। (श० २।१३६) ६७. अलोयागासे णं भंते ! किं जीवा ? पुच्छा तह चेव। गोयमा ! नो जीवा जाव नो अजीवप्पदेसा; ६८. एगे अजीवदबदेसे अगरुयलहुए ६६. अणतेहि अगरुयलहुयगुणेहि संजुत्ते सब्बागासे अणंतभागणे। (श० २।१४०) खध आश्री अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति नों देश नांय। अधर्मास्ति नां प्रदेशा, अद्धा समय काल सूविशेषा ।। अलोक आकाश में जेम, स्यं जीवा? पूछा तेम। जिन भाख जीव न कहेवा, जाव अजीव प्रदेश न लेवा ।। एक अजीव द्रव्य आकाश, तस देश अगरुलघु जास। स्व - पर्याय पर - पर्याय, गुण अगुरुलघु कहिवाय ।। एहवा अगुरुलघु गुण अनंता, तिण गुण संयुक्त कहता। सर्व आकाश पिछाणं, ऊणो भाग अनंतमो जाणं ।। लोकाकाशेणं हे भगवत ! किता वर्ण? गोयम पूछत। अवर्ण जाव अफर्श कहाय, इक अजीव द्रव्य देश थाय ।। एक अजीव द्रव्य आकाश, तसं देश अगुरुलघु जास । स्व - पर्याय पर - पर्याय, गुण अगुरुलघु कहिवाय ।। एहवा अगुरुलघु गुण अनंता, विन गुण संयुक्त कहता। सर्व आकाश पिछाण, तिण सं भाग अनंतमो जाण' ।। धर्मास्तिकायादिक जाण, पूर्व आख्या पहिछाण । तेहिज प्रमाण थी जोय, हिव प्रश्न तास अवलोय ।। हे प्रभु ! धर्मास्तिकाय कितली मोटी कहिवाय । जिन भाखै लोक मझार, ते लोक प्रमाण विचार ।। ७५. लोक फर्यो निज प्रदेश, लोक फरशी रहै विशेष। एवं अधर्मास्तिकाय, इम लोकाकाश जणाय ।। जीवास्ति पोग्गल त्थिकाय, इम पंच आलावा कहिवाय । फर्शन अधिकार ते साधी, हिव फर्शन अधोलोकादी ।। ७३. अनन्तरोक्तान् धर्मास्तिकायादीन् प्रमाणतो निरूपयन्नाह-- (वृ०-५० १५१) ७४. धम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! लोए लोय मेत्ते लोयप्पमाणे ७५, ७६. लोयफुड़े लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठा। (श० २।१४१) . एवं अधम्मत्थिकाए लोयाकासे जीवस्थिकाए पोग्गलत्थिकाए पंच वि एक्काभिलावा । (श० २।१४२-१४५) स्पर्शनाऽधिकारादधोलोकादीनां धर्मास्तिकायादिगता स्पर्शनां दर्शयन्निदमाह- (वृ०प० १५१) ७७. अहोलोए णं भते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति ? गोयमा ! सातिरेगं अद्धं फुसति। (श० २११४६) ७८. तिरियलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति ? गोयमा ! असंखेज्जइभागं फुसति। (श० २।१४७) ७६. उड्ढलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फूसति ? गोयमा ! देसूणं अद्ध फुसति। (श० २११४८) देशोनसप्तरज्जुप्रमाणत्वादूर्ध्वलोकस्येति । (वृ०-५० १५२) ८०. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स कि संखेज्जइभागं फुसति ? असंखेज्जइभागं फुसति ? ७८. अधोलोक अहो भगवान ! धर्मास्तिकाय पिछान । कितल फर्श ते कहिये ? जिन क है साधिक अर्ध लहियै ।। प्रश्न तिरछा लोक न की, तब जिन उत्तर इम दी●। लोक तणो सुविचार, भाग असंख्यातमो धार ।। प्रश्न अर्ध्व लोक नो जेह, तसं जिन उत्तर इम देह। फर्श देसूण अद्ध लोय, सात राज मठेरो होय ।।। ८०. प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी ताय, फर्श धर्मास्तिकाय । स्य संख्यातमो भाग कहिये, के असंख्यातमो लहिये ।। १. ४६वीं ढाल में ७०-७२ तक पद्यों का आधारभूत पाठ वर्तमान आदर्शों में उपलब्ध नहीं है। संभव है, जयाचार्य के पास जो आदर्श था, उसमें यह पाठ रहा होगा अथवा इस सन्दर्भ में इन पद्यों को लिखने का और भी कोई कारण हो सकता है। हमने जोड़ के तीनों पद्यों को उसी रूप में प्रस्तुत किया है। २. रज्जु ३१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ucation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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