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________________ वा०–'उवओगे' त्यादि, अत उपयोगलक्षणं जीवभावमुत्थानाद्यात्मभावेनोपदर्शयतीति वक्तव्यं स्यादेवेति । (वृ०-प० १४६) वाo-अथ जो उत्थानादिक आत्म-भाव विष वर्त्ततो थको जीव मति ज्ञानादिक उपयोग प्रत प्राप्त हुवै, ते स्यूं एतला मात्र थीज जीव भाव प्रत दिखाई इसो कहिवू जोइए? इसी आशंका करै, तिवारे भगवान कहै-'उवओगलक्खणे णं जीवे' जीव नों लक्षण उपयोग छै, इण कारण थकी उपयोग-रूप जीवत्वे उत्था नादिक आत्म-भाव करिकै देखाई, इम कहिवू जोइएज। ५४. तिण अर्थ उट्टाणादि सहीत, जाव जीवपणोज कहीत । कह्य जीव सूत्र सुविमास, हिवै तसं आधार आकाश ।। ५५. प्रभु ! कतिविध कह्य आकाश ? जिन भाखै द्विविध तास । लोकाकाश ते लोक-मझार, अलोकाकाश लोक नै बार ।। ५४. से एएणढेणं एवं वुच्चइ--गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे जाव...जीवभाव उवदंसेतीति बत्तवं सिया। (श०२।१३७) अनन्तरं जीवचिन्तासूत्र मुक्तम्, अथ तदाधारत्वेनाकाशचिन्तासूत्राणि । (वृ०-५० १४६) ५५. कतिविहे णं भंते ! आगासे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा--लोयागासे य अलोयागासे य। (श०२।१३८) ५६. लोयागासे णं भंते ! कि जीवा? जीवदेसा? जीवप्प देसा? ५७. अजीवा ? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा? ५८. ५६. प्रभु ! लोकाकाशे जीवा, स्यूं खंध रूप कहीवा ? के जीव तणा छै देश? वलि जीव ना बह प्रदेश ? ५७. के अजीव, अजीव ना देश, के अजीव ना बहु प्रदेश ? ए पट प्रश्न पछंत, हिव जिन भाखै सूण संत ।। लोक विप जीव खंध जाण, जीव देश-प्रदेश पिछ।ण । अजीव अजीव ना देश, छै अजीव ना प्रदेश ।। ५६. जे जीवा ते नियमा एगिदिया, बेइंदिया नै तेइंदिया। चरिदिया नै पंचेंदिया, वलि सिद्ध प्रमुख अणि दिया।। ६०. जे जीव-देशा सुविशेषा, ते नियमा एगिदिय-देशा। जाव अणिदिय - देशा, ए सिद्ध प्रमुखज कहेसा ।। ५८. गोयमा ! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि। ५६. जे जीवा ते नियमा एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचिदिया अणिदिया। ६०. जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदिय देसा। ६१. जीवस्यैव बुद्धिपरिकल्पिता द्यादयो विभागाः । (वृ०-५० १५०) ६२. सोरठा ६१. जीव तणाज संवाद, बुद्धि परिकल्पित अछ। विभाग जे बे आद, जीव तणां बहु देश ते ।। धर्मास्तिकायादि द्रव्य एक, तेहनां देश कह्या नथी। अनंत जीव द्रव्य पेख, बुद्धि परिकल्पित देश तसं ।। ६३. *जे जीव तणा परदेशा, ते नियमा एकेन्द्री पएसा। जाव अणिदिय प्रदेशा, ए सिद्धि प्रमुख गणेशा ।। ६४. जे अजीव ते बे प्रकारा, रूपो नै अरूपी सारा। रूपी चिउं विध खंध देशा, प्रदेश परमाणु विशेषा ।। ६३. जे जीवापदेमा ते नियमा एगिदियपदेसा जाव अणि दियपदेसा। ६४. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--रूवी य अरूबी य। जे रूवी ते चउब्विहा पण्णता, तं जहा-खंधा, खंधदेसा, खंधपदेसा, परमाणुपोग्गला। ६५. जे अरूबी ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, नो धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, ६५. अरूपी पंचविध ताय, खंध आश्री धर्मास्तिकाय । धर्मास्ति नो नहीं देश, धर्मास्ति नां बहु प्रदेश ।। *लय-खटमल मेवासी श०२, उ०१०, ढा०४६ ३०६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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