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________________ अण्णमण्ण तेडी इम कहै, इम निश्चै संगीत। वलिचंचा रजधान ते, इंद्र पुरोहित रहीत ।। ३. अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अजिंदा अपुरो हिया, अम्है देवानुप्रिया ! अछां, इंद्र तणे वस साज। इंद्र तणज अधिष्ठिता, इंद्र तणे वस काज ।। ते भणी देवानुप्रिया! एह तामली बाल । तामलिप्ति रै बाहिरै, ईशाण-कूण विचाल ।। स्व तनु प्रमाण मंडलो, आलेखी नै सार । भक्त-पाण पचखी करी, पादोपगमन उदार ।। ते कारण श्रेय अम्ह भणी, तामली प्रत विचार । निदान बलिचंचा तणो, कराविय इह वार ।। अन्योऽन्य ए अर्थ प्रतै, अंगीकार करी भेव। बलिचंचा मध्य - मध्य थइ, नीकलिया ते देव ।। रुचकेंद्र उत्पात - गिरि, तिर्यग लोक मग ख्यात । तिहां आवै आवी करी, करि वैक्रिय समुद्घात ।। जाव उत्तर - वे करी, विकुर्वे अन्य रूप। उत्कृष्ट उत्कर्ष गति करी, आकुल त्वरित तद्रूप ।। ४. अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिट्ठिया, इंदाहीणकज्जा ५. अयं च णं देवाणुप्पिया! तामली बालतवस्सी तामलि त्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभागे ६. नियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवणे, ७. त सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तामलिं बालतवस्सि बलिचंचाए रायहाणीए ठितिपकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु ८. अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता बलिचंचाए रायहाणीए मज्झमझेणं निग्गच्छंति, ६. जेणेव रुयगिदे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवा गच्छित्ता वेउब्बियसमुग्घाएणं समोहणंति, १०. जाब उत्तरबेउब्वियाई रूवाई विकुवंति, विकुवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए त्वरितया' आकुलतया। (वृ०-५० १६७) ११. चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए 'चपलया' कायचापलोपेतया 'चण्डया' रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन 'जयिन्या' गत्यन्तरजेतृत्वात् 'छकया' निपुणया उपायप्रवृत्तितः। (वृ०-५० १६७) १२. सीहाए सिग्घाए उद्ध्याए दिव्वाए देवगइए 'सिंहया' सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन 'शीघ्रया' वेगवत्या 'दिव्यया' प्रधानया उद्धतया वा सदर्पया। काया चपल चपला कही, चंड रोद्र गति जाण । जयणा अन्य गति जीपवै, छेक निपुण गति आण ।। सीह गति सम अरु गति उद्धतया दर्प-सहीत । दिव्य प्रधान गती करी, आवै तन मन प्रीत ।। तिरछा द्वीप समृद्र ते, असंख्यात मध्य होय । जंबूद्वीप जिहां अछ, जिहां भरत अवलोय ।। १३. तिरियं असंखेज्जाणं दीवसमुदाणं मज्झंमज्झेणं वीईव यमाणा-वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे १४. जेणेव तामलित्ती नगरी जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, जिहां तामलिप्ती अछ, जिहां तामली जेह । मोरिजपुत्र तिहां सहु, आव्या छै धर नेह ।। १. अगंसुत्ताणि भाग २ श० ३।३८ में देवों की गति के साथ अनेक विशेषण पद हैं। उनमें एक पद है उद्भूयाए । वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इस पद की व्याख्या करते हुए लिखा है----'उद्धृतया' वस्त्रादीनामुद्भूतत्वेन, उद्धतया वा सदर्पया। (वृ० ५० १६७) जयाचार्य ने भगवती की जोड़ में वैकल्पिक पाठ को स्वीकार कर उसी का प्रयोग किया है। संभव है, उनके पास जो आदर्श था उसमें केवल 'उद्धयाए' पाठ रहा होगा। श०३, उ०१, ढा०५२ ३३१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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