SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. समुत्पन्न । वचन्न ॥ धारणा जातद्धत्वादेह । एह || तीनूई होय । ए अर्थ अवलोय || आख्यात | समुत्पन्न श्रद्धा पुनः, सशय समुत्पन्न - कोतुहल त्रिहुं है अन्य आचारज इम कहै कथा अपेक्षा करि दहां पद उत्पन्नश्रद्ध इत्यादि पद, तुल्य वांछित प्रकर्ष वृत्ति प्रतिपादन स्तुतीमुख करि ने यहां पंचता बलि पुनरुक्त न दोष इम वक्ता हर्ष भयादि करि बार बार पद जे कहै, समुच्चय द्वादश वोल ए, सूत्रे अधिक अर्थ दाख्यो इहां, वृत्ति थकी विस्तार || हियं भगवंत गौतम सिके, कठे कठी धीर । जिहां दिशिभाग विर्ष अर्थ, श्रमण भगवंत महावीर ॥ तिहां आवै आवो करी, तिण काल तणी अपेक्षाय । वर्तमान छे ते भो, कहो वर्तमान किया ताय ॥ निर्माणो तस अवदास' || आक्षिप्त मन स्तुति निंद । पुनरुक्त दोष न मंद ।। आख्या सार । * जिन श्रमण तपस्वी, भगवंत ऐश्वर्यवान। जस महिमावंत ज्ञानवंत, महावीर प्रति जान ॥ बुहा तिखुत्तो वि वारज, दक्षिण कर थी आरंभ। पयाहिणं प्रदक्षिण करें, करी करे, करी गुणअंभ ॥ १. कुछ आचार्यों के अभिमत में जातश्रद्ध आदि पद एक अपेक्षा से उत्पन्नश्रद्ध आदि पदों के समानार्थक हैं । किन्तु विवक्षित अर्थ का प्रकर्ष दिखलाने के लिए ग्रन्थकार ने प्रशस्ति के रूप में इन पदों का प्रयोग किया है। यह प्रयोग पुनरुक्त होने पर भी दोष नहीं है क्योंकि वक्ता हर्पभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकृत् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥ हर्ष, भय आदि से विक्षिप्त होकर बोलने वाला अथवा स्तुति या निन्दा करने वाला एक ही पद का बार-बार उच्चारण करता है। उसका वह पुनर्वचन दोष नहीं माना जाता। क्योंकि यह स्वाभाविकता है । २. उत्थानं उत्था अर्थात् उठने की क्रिया। यहां उट्ठेति क्रिया को उठाए शब्द से विशेषित किया गया है। इस विशेषण-प्रयोग का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने कहा है—'उट्ठेइ' इतना कहने से क्रिया के प्रारंभ होने की ही प्रतीति होती है। इसका व्यवच्छेद करने के लिए, पूर्णतः उठ गए इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए उठाए शब्द का प्रयोग है । उत्थानं उत्था - ऊर्ध्ववर्तन इत्यर्थः तथा उत्थया, उत्तिष्ठति ऊर्ध्वो भवति । *लयन ए अनन्त चौबीसी ू Jain Education International ३५-३७. अन्ये त्वाहुः -- जातश्रद्धत्वाद्यपेक्ष योत्पन्नश्रद्धत्वादयः समानार्थी विवलितार्थस्य प्रवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुनेन प्रत्यकृतोताः । (20-70 ?) ३८. वक्ता हर्ष भयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । महत्पुनस्तं न दोषाय ॥ ( वृ० प० १४ ) ४०. उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे ४१. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, तत्कालापेक्षया वर्तमानत्वादागमनक्रियाया वर्तमानविभक्त्या निर्देश: (१०० १४) कृतः । ४२. समणं भगवं महावीरं ४३. तिक्खुतो आयाहिण-पयाहिणं, 'तितो' तीन् वारान् । For Private & Personal Use Only करेइ, करेत्ता । ( वृ० प० १४ ) श० १, उ० १, ढा० ३ ४५. www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy