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३८. धम्मकहा भाणियव्वा।
(श० २।५१)
३८. धर्म कथा भणवी इहां उबवाई रै माय।
एह तणो विस्तार छ तेम इहां कहिवाय ।। ३६. *देवै श्री जिन देशना, अमृतवाणी ऐन, सयाणा!
आर्य अनारज सांभली, चित मे पामें चैन, सयाणा!
४०.
गीतक-छंद चित मांहि चैन अत्यंत पामैं, शरद नव घन सारखो। गभीर मधुर कोंच दुंदुभि, पवर रव स्वर पारखो।। भाषा भली अधमागधी, फुन वाणि योजन गामिनी। पणतीस गुण करि परवरी, भव्य सर्व नै हित-कामिनी।।
४२-४७. जह जीवा बझंती मुच्चती जह य संकिलिस्संती। जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा॥ अट्टनियट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेंति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडिति ॥
(वृ०-५० १२१)
यतनी ४२. हितकार सर्व नै होय, जिन वाण परूपी जोय ।
जिम कर्म थी जीव बंधावै, तिकै कारण प्रति ओलखावै ।। ४३. बलि जेह उपाय करेह, जीव कर्म थकी मूकावेह ।
तसु कारण आप बताव, भिन भिन करिने दर्शावै ।। ४४. एह जीव संसार रै माय, जिम क्लेश दुःख अति पाय ।
तिका सावज करणी असार, जिका ओलखावै जगतार ।। जिम सर्व दुःख नो अंत, केइ जीव करै मतिवंत ।
जिका दूर किया मोह-जाल, चित आतध्यान थी टालै ।। ४६. जे आतध्यान थी नहि निवर्तत, आत्त-अनुगत चित अति हुंत।
भव-सागर जेम भमंत, तेह कारण कहै भगवंत ।। ४७. जिम वैराग्य भावज पाया, राग-द्वेष नी लैर मिटाया।
तिके कर्म डाबडो उघाडै, झट कर्म आठंड झाडै ।। ४८. पंच महाव्रत साधु नां सार, बलि श्रावक नां व्रत बार।
ए द्विविध धर्म उदार, आराध्यां सुध गति सुखकार ।। ४६. .इत्यादिक उपदेश दियो जिन जी जानी,
सरस संवेग विशेष परम पद नी सानी। नी सानी जी, उचरंग आनी, सुण हिय परिषदा हुलसानी, ऐ तो जयवंता जिनराज प्रभू नी वर बानी ।। 'खंधक तब प्रभुजी कनै धम सुणी हिय धार। हरप संतोष जावत् बली विकसित हृदय उदार ।।
५०. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ
महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे जाव हियए।
*लय-तारा हो प्रत्यक्ष •लय—धिन-धिन भिक्षु स्वाम 'लय-पंखी गुणरसियो
श०२, उ०१, ढा०३५ २२१
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