________________
२१. आदि अंत नहिं जेहनों, चिउं गति में दीर्घ काल ।
संसार-अटवी नै विष, भ्रमण करै ते बाल । २२. तिण अथें करि गोयमा ! असंवडो अणगार।
सीझै नहीं, बूझे नहीं, जाव नहि सर्व दुख अंतकार ।।
२३. असंवत ना एह फल, हिव संवत फल हीर।
प्रमत्त - अप्रमत्त भेद करि, चरम - अचरम शरीर ।। २४. चरमशरीरी तणो इहां, गौतम प्रश्न पूछंत।
हे प्रभु ! संवुडो मुनिवरु, सीझै, बूझै करै दुख - अंत?।। जिन भाख संवुडो मुनि, सीझ, बूझ करै दुख - अंत ।
गोयम कहै किण कारण, दुख नो अंत करत?।। २६. जिन भाखै संवुडो मुनि, आयु वर्जी कर्म सात।
प्रकृति गाढी बंधी तिके, ढीली करै विख्यात ।। २७. दीर्घ काल नी स्थिति ते, अल्प काल नी करत।
तीव्र अनुभावे कर्म जे, मंद अनुभावे धरंत ।। कर्म दल बहु प्रदेश ते, अल्प प्रदेश करत। आउखो कर्म बंधै नहीं, असातावेदनी न चिणंत ।।
२१. अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकतारं
अणुपरियट्टइ २२. से तेणठेणं गोयमा ! असंवुडे अणगारे नो सिज्झइ, नो
बुज्झइ, नो मुच्चइ, नो परिनिव्वाइ, नो सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ॥
(श०११४५) २३, २४. असंवृतस्य तावदिदं फलं, संवृतस्य तु यत्स्यात्तदाह
संवृतः-अनगारः प्रमत्ताप्रमत्तसंयतादिः, स च चरमशरीरः स्यादचरमशरीरो वा, तत्र यश्चरमशरीरस्तदपेक्षयेदं सूत्रं ।
(वृ०-५०३५) २४, २५. संबुडे णं भंते ! अणगारे सिज्जइ, बुज्झाइ, मुच्चइ,
परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ? हंता ! सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सब्बदुक्खाणं अंतं करेइ।
(श०११४६) २५-२८. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-संवुडे णं अणगारे
सिज्ज्ञइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करे?
गोयमा ! संडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिडिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालद्विइयाओ हस्सकाल ट्ठिइयाओ पकरेइ, तिब्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ; आउयं च णं कम्मं न बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो-भुज्जो उव
चिणाइ
३१.
२६. आदि - अंत नहि जेहनो, चिउं गति ते दीर्घ काल। संसार रूप अटवी प्रते, अतिक्रमै
गुणमाल ॥ तिण अर्थे कह्यो गोयमा ! संवुडो
अणगार। सी., बूझ, कर्म मोचदै, सर्व दुख नो अंतकार ।।
सोरठा अचरम तनु संवृत्त, कहिवो ए अपेक्षाय थी। तेह परंपर तत्त, अल्प भवे शिव पामिय।। जो ए इम शिव होय, तो शुक्लपक्षी पिण असंवत । अवस्य परंपर जोय, ते पिण शिव पामै अछै ।। तो संवुडो ताय, बलि असंवुडा तणां।
फल में फेर स्यूं थाय? तसं उत्तर कहिये हिवै।। ३४. असंवुडो चरण - भ्रष्ट, सूत्रे फल विराधक तणां।
रुलै काल उत्कृष्ट, देसूण अर्द्ध-पुद्गल कह्यो ।। ३५. संवत मुनि उत्कृष्ट, सप्त अष्ट भव सिध हुवै।
वर्णन कितो विशिष्ट, आख्यो छै ए वृत्ति थी।
२६. अणादीयं च णं अगवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं
वीईवयइ ३०. से तेण→णं गोयमा! एवं वुच्चइ-संवुड़े अणगारे
सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ।
(श० ११४७) ३१-३५. यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्षया परम्परया सूत्रार्थोऽ
बसेयः, ननु पारम्पर्येणासंवृतस्यापि सूत्रोक्तार्थस्यावश्यम्भावो, यतः शुक्लपाक्षिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंभावी, तदेवं संवृतासंवृतयोः फलतो भेदाभाव एवेति, अत्रोच्यते, सत्यं, किन्तु यत्संवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतः सप्ताष्टभवप्रमाणं, यच्चासंवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तमानमपि स्याद्, विराधनाफलत्वात्तस्येति।
(वृ०-प० ३५)
श०१, उ०१, ढा०६ ७६
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org