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८.
ε.
१२.
१३.
प्रश्न
१०. धिन धिन गोयम गणहरू, ज्यां पूछया प्रश्न प्रधान । प्रभुजी । पिन प्रभु उत्तर आपिया, त्रिभुवन तारक मान प्रभुजी (ध्रुपदं । ११. हे प्रभु ! जे घर छोड़ने, नहि संध्या आश्रवद्वार, प्रभुजी | सीझे बूझे मुच्चै हुवे सीतली, सर्व दुख क्षयकार ? प्रभुजी || वीर कहे सुण गोवमा ! ए अर्थ गोयम कहै कि कारण, असंवुडो जिन कहै अणगार असंवुडो, आयु प्रकृति ढोली बंधी कर्म न करें
नांय |
जाय ? ।।
समर्थ मोक्ष न वर्जी कर्म दृढ़ निकाच विख्यात ॥
सात ।
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१६.
शिव हेतु
चरित नो इम केइ गोयन
२०.
शानादि में दर्शन ईज प्रधान । कारण नहीं, दर्शन थीज निर्वान' ॥ मानें तेहनें, समझावण ने नं हेतु। इसो गुणज्यो सहू सचेत ॥
करे
टीकाकार इहां इम को अशुभ प्रकृति प्रदेश बंध रो, हेतू स्थिति सातुं कर्म भी अस्प दीर्घ काल नी जे करै, जबर टीकाकार इहां इस को स्थिति अनुभाग रस विपाक नो, कहिये मंद अनुभाव वंध्या तिके, तीव्र अल्प प्रदेश कर्म तणां, बहू आउखो कर्म बंध तदा, कदाचित् असाता ते दुख वेदनी, वलिबल अंतर्वति सप्त कर्म में, असाता कहिया तो कारण किसो ? उत्तर ते
जोग जोग
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जोग
काल
कषाय
बंध
सूं
नी
थी
नों
हेतु
अनुभाव
प्रदेश
जाण ।
पिछाण ॥
होय ।
जोय ॥
न
उपचित
वेदनी
इम
ताय ।
कषाय ॥
करंत |
धरत ॥
बंधाय ।
थाय ॥
फेर ।
हेर ॥
असंवृत अधिक दुखी हुवै, तसुं फल महादुख देख | श्रोता नं भय ऊपजै, तो तजै असंवृतपणुं अशेप ||
१. कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र में दर्शन ही प्रधान है । चारित्र हो या नहीं, दर्शन से अभिलषित अर्थ की सिद्धि हो सकती है। उनके अभिमत की अभिव्यक्ति इस श्लोक से होती है
भटठेण चरिताओं सुट्ठयरं दंसणं गहेयध्वं । सिज्झति चरणरहिया दंसणरहिया न सिज्झति ॥ जयाचार्य ने अपनी जोड़ में इसी मान्यता को उद्धृत * लय- शिवपुर नगर सुहांमणो
किया है।
७८ भगवती जोड़
८. ननु सत्यपि ज्ञानादेर्मोक्षहेतुत्वे दर्शन एवं यतितव्यं, तस्यैव मया। ( वृ० प० ३४ )
६. इति यो मन्यते तं शिक्षयितुं प्रश्नयन्नाह
(१०-२०३४)
११. असं ते अगवारे सिदध मु परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ?
१२, १३. गोमा गो इटुडे सम
(30 (106) से केणट्ठेणं भंते ! एवं बुच्चइ -- असंवुडे णं अणगारे नो सिज्झइ, नो बुझइ नो मुच्चइ, नो परिनिव्वाइ, नो सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ? गोयमा ! असंबुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ
१४. असंवृतत्वस्याशुभयोगरूपत्वेन गाढतरप्रकृतिबन्धहेतुत्वात् । (१०० ३४, ४५) १५. हस्तकला दीरकादियान करे
(०१०४५)
१६. असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वेन स्थितिबन्धहेतुत्वात्,
( वृ० प० २५) १७. मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसम्गाओ प्पएसओ करे
१८. आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्साया वेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो - भुज्जो उवचिणाइ
१६. ननु कर्मसप्तकावं तत्तित्वादसातावेदनीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव पचयप्रतिपत्तेः किमेतन ( वृ० प० ३५) २०. असंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थमिदमित्यदुष्टमिति ।
( वृ०१० ३५)
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