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३६. *कह्यो संवुडो मुनि सी. इहां, तेह थी अन्य विशिष्ट गुण-रहीत।
ते देव हुवै के हुवै नहीं? एहवा प्रश्न करै धर प्रीत ।। ३७. हे प्रभु ! जीव असंजती, अव्रती व्रत-रहीत ।
पचखाण करी पाप कर्म नै रुंध्या नहिं सुध रीत।। ३८. ते तिर्यंच मनुष्य मरी, परभव गति पहिछाण ।
देव हुवै के हुवै नहीं ? ए समक्त्व चरण रहित जाण ।। ३६. जिन कहै केइ ह देवता, केइक देव न थाय ।
गोयम कहै किण कारण? जिन कहै सांभल न्याय ।।
३६. अनगारः संवृतत्वात्सिध्यतीत्युक्तं, यस्तु तदन्यः स विशिष्टगुणविकलः सन् कि देवः स्याल वा ? इति प्रश्न
(वृ०-प० ३५) ३७,३८, जीवे णं भंते ! अस्संजए अविरए अप्पडिहयपच्च
क्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया?
यन्नाह
४०. ए जीव पंचेंद्री तिर्यंच ते, अथवा मनुष्य पहिछाण।
ग्राम आगर नगरै रहै, निगम वणिक ज्यां प्रधान ।। राजधानी तिहां नृप वसै, धूलकोट ते खेड प्रत्यख । करवट कह्यो कुनगर नै, जल स्थल पथ द्रोणमुख ।। मडंब वसती थी दूर सराय छै, विविध देश थी आयो क्रियाण । ते स्थान भणी पट्टण कह्यो, केइ रत्नभूमि कहै जाण ।। आश्रम स्थान तापस तणां, गोकुलादिक ते सन्निवेस । मनुष्य तथा तिर्यंच त्यां, सहै मन विन तृपा विशेष ।।
३६. गोयमा ! अत्थेगइए देवे सिया, अत्यगइए णो देवे सिया।
से केपट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-अस्संजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्चा अत्थे
गइए देवे सिया, अत्यंगइए नो देवे सिया ? (श० १२४८) ४०-४३. गोयमा ! जे इमे जीवा गामागर-नगर-निगम
रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए
निगमो-वणिगजनप्रधानं स्थानं, राजधानी--यत्र राजा स्वयं वसति, खेट-धूलिप्राकार, कर्बट-कुनगरं, मडम्ब-सर्वतो दूरवत्ति सन्निवेशान्तरं, द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथोपेतं, पत्तनं-विविधदेशागतपण्यस्थानं, रत्नभूमिरित्यन्ये, आथमं-तापसादिस्थानं, सन्निवेशोघोषादि: 'अकामतण्हाए' त्ति अकामानां—निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां तृष्णा----तृड् अकामतृष्णा तया।
(वृ०-प० ३६) ४४-४७. अकामछुहाए, अकामवंभचेरवासेणं, अकामसीतातव
दंस-मसग अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल-पंक-परिदाहेणं अप्पतरं वा भुज्जतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति।
४४. निर्जरा नो अभिलापा विना, क्षुधा सहै तन त्रास।
वलि निर्जरा नी इच्छा विना, अकाम बंभचेरवास ।। निर्जरा ना भाव बिना वलि, सहै सीत आतप दंस मंस । इमहिज स्नान करै नहीं, परसेवै करी तन ध्वंस ।। रज तनु वलग ते जल्ल कह्यो, कठिनभूत मल जाण ।
पंक ते मल परसेवै करी, आलो मैल पिछाण ।। ४७. ए पूर्वे कह्या छै ते थकी, ऊपनो परिदाह कलेस ।
बहुत काल अल्प काल ही, भोगवी कष्ट असेस ।।
एवमकामक्षुधा, 'अकामवंभचेरवासेणं' ति अकामाना--निर्जराद्यनभिलाषिणां सताम् अकामो वानिरभिप्रायो ब्रह्मचर्येण स्त्र्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासो-रात्रौ शयनमकामब्रह्मचर्यवासोऽतस्तेन, 'अकामअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेणं' ति अकामा येऽस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः स तथा तेन, तत्र स्वेदः-प्रस्वेदः याति च लगति चेति, जल्लोरजोमात्र, मल:---कठिनीभूतं रज एव पको—मल एव
स्वेदेनार्दीभूत इति। (वृ०-प० ३६, ३७) ४८. कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलो
गेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । (श० ११४६) ४६. केरिसा णं भते ! तेसि वाणमंत राणं देवाणं देवलोगा
पण्णता? गोयमा ! से जहानामए इहं
४८. अनैरा वाणब्यंतर तणा, देवलोक रै माय।
काल करीने ऊपजै, देवपणे कहिवाय॥ ४६. हे भगवंत ! ते व्यंतर तणां, देवलोक किसायक होय?
वीर कहै सुण गोयमा ! दृष्टांत दे कहं तोय ।। *लय-शिवपुर नगर सुहांमणो
८० भगवती-जोड़
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